लघुकथा

एकता में शक्ति

रवि अपने पिताजी के साथ बाजार से होकर गुजर रहा था । फलों की दुकानों पर सजे पके फल देखकर उसके मुंह में पानी भर आया था । उसने अपनी उंगली उठाकर फलों की तरफ इशारा करते हुए कुछ फल खरीदने का आग्रह किया ।
उसके पिताजी जिनका नाम जवाहर था फलवाले से पुछा ” भैया ! ये अंगूर कैसे दिए ? ”
फलवाले ने गुच्छे में लगे अंगूरों की तरफ उंगली दिखाते हुए जवाब दिया ” ये अंगूर आपके लिए एक सौ बीस रुपये का एक किलो तौल दूंगा । ”
कुछ देर रुकने के बाद उसने एक छोटी सी टोकरी में रखे अंगूर के दानों की तरफ इशारा करते हुए बोला ” अगर आप ये अंगूर के दाने लेना चाहे तो आपको एकदम कम दाम में दे दूंगा । एक दम ताजे हैं । ले लीजिये आपको मैं ये अस्सी रुपये किलो के भाव से दे दुंगा । ”
जवाहर ने अंगूरों के गुच्छे में से एक गुच्छा तौला लिया और घर की तरफ चल पड़ा ।
उसकी उंगली पकडे रवि चल तो रहा था लेकिन उसके दिमाग में उसकी शिक्षिका नीलम जी का कहा वाक्य गुंज रहा था ” बच्चों ! अभी आपने कबूतर और बहेलिये की कहानी सुनी । इससे यह सीख मिलती है कि एकता में बड़ी शक्ति है । कबूतरों ने एकता की वजह से ही बहेलिये से बचने में कामयाबी पाई थी ……”
और नन्हा रवि मन में ही विचार कर रहा था ” बहनजी ठीक ही बता रही थीं । जब तक अंगुर गुच्छे में हैं उनकी कीमत है गुच्छे से टूटकर तो अंगूरों की भी कोई कीमत नहीं बची  । सच है एकता में बड़ी शक्ति है । “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।