ग़ज़ल
तुम्हें साथ अपने सदा चाहती हूँ
नहीं कुछ तुम्हारे सिवा चाहती हूँ
..
न दौलत जहां की,न कोई अटारी
सुकूं जिंदगी में खुदा चाहती हूँ
..
भुला कर जहां के सभी आज गम मैं
तुम्हें हर घडी सोचना चाहती हूँ
..
सुनो जिंदगी में है ख्वाहिश बहुत पर
फ़क़त चाहतों का सिला चाहती हूँ
..
अना है निगाहों में, लबों पर हया
बताऊं तो कैसे मैं क्या चाहती हूँ
..
न आदत में शामिल मेरे बेवफाई
सदा हमसफर बावफ़ा चाहती हूँ
..
यही इल्तिज़ा है रमा बस खुदा से
मुहब्बत मुझे हो अता चाहती हूँ
रमा प्रवीर वर्मा