तुम्हारी भौजाई ने घुघुरी बनाया है, आ जाना
जब से उन्होंने कनफुसकी की है, तब से सारा देश सन्न है! कयासों का बाजार गर्म है। अखबारी और चैनली लाल बुझक्कड़ों से लेकर गली-कूचे तक के गपोड़ियों और ठेलुओं के अपने-अपने कयास हैं, अपने-अपने विश्लेषण हैं। पत्रकारिता की खाल ओढ़कर किसी ज्योतिषी की तरह भविष्यवाणी करने वाले लाल बुझक्कड़ तभी से यह खोजने की कवायद कर रहे हैं कि आखिर मामले की पूंछ कहां है? पूंछ पारिवारिक है या राजनीतिक, बेटे की चिंता से जुड़ा है या जवानी के दिनों में की गई खुराफात के उजागर हो जाने की चिंता।
उस्ताद गुनाहगार तो बड़े दावे के साथ कह रहे हैं, ‘मूर्ख हो तुम लोग, जो इन्हें एक दूसरे का विरोधी मानते हो। अरे ये सब एक ही थाली के बैगन हैं। जब इनमें से कोई एक देश का भाग्यविधाता होता है, तो दोनों, तीनों…या यों कहें कि सभी एक दूसरे को राजनीतिक मंच पर भले ही रावण, अहिरावण या महिरावण बताते हों, लेकिन पर्दे के पीछे गलबहियां डालकर हंसते हैं, खिलखिलाते हैं, एक दूसरे के कंधे पर सिर रखकर अपनी-अपनी भूली-बिसरी प्रेमिकाओं की याद में आंसू बहाते हैं, स्याह-सफेद कारनामों का हल खोजने की जुगत भिड़ाते हैं। यह कानाफूसी किसी विपदा को टालने का अनुरोध करने के लिए की गई थी।’
मेरे पत्रकार मित्र राम लुभाया अपने किसी सूत्र के हवाले से कहते हैं कि उन्होंने कान में सिर्फ इतना कहा था, ‘गुरु! तुम्हीं अच्छे रहे, जो न इधर फंसे, न उधर। मुझे देखो, मेरी तो हालत तो ‘दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय’ वाली हो रही है। कभी ये कुर्ता पकड़कर खींचती है, तो कभी दूसरी वाली के बाल-बच्चे। भाई-पट्टीदारी के झगड़े में मेरी हालत फुटबाल जैसी हो गई है, जिसे हर कोई किक लगाना चाहता है, ताकि ‘गोल’ हो जाऊं। ‘माया’, ‘मोह’ ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।’
लेकिन असली बात कोई नहीं जानता, सिवा मेरे। आपको राज की बात बताता हूं किसी से कहिएगा नहीं। कान में पुराने पहलवान ने नए पहलवान से सिर्फ इतना ही कहा था, ‘गुरु! फुरसत हो, तो आज शाम को घर आना। तुम्हारी भाभी ने मसालेदार घुघुरी बनाई है। ठंडी-ठंडी छाछ के साथ घुघुरी खाने का मजा ही कुछ और है।’ पहलवान ने जब पोते की शादी की थी, तो उन्होंने दूसरे अखाड़े का होते हुए नए पहलवान को शादी में शरीक होने का न्यौता भेजा था। नए पहलवान आए और राजनीतिक वैर-भाव भुलाकर बहू-पोते को आशीर्वाद के साथ-साथ गिफ्ट-शिफ्ट भी दिया था। वैसे भी लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था की राजनीति में मतभेद होते हैं, मनभेद नहीं। यह तो हम-आप जैसे बज्रमूरख होते हैं, जो इनके चक्कर में अपने पड़ोसी से मारकर लेते हैं। जिस बात को लेकर बड़े-बड़े लाल बुझक्कड़ जो कयास लगा रहे हैं, वैसी कोई बात नहीं है। बस, घुघुरी खाने का न्यौता भर है।