ग़ज़ल : जो करते थे बुराई उनकी चौराहों पर
जो करते थे बुराई उनकी चौराहों पर
वो आ ही गये हैं देखिये दौराहों पर
डगमगा रही हैं आज इमारतें ऊँची,
जो खड़ी थी वर्षों से तिराहों पर
होने लगा है विरोध गलत कामों का,
लगने लगी बंदिश अब मनचाहों पर
पहनती हैं स्वयं पौशाकें झीनी-झीनी
दोष मँढ़ती है ये दुनियां जुलाहों पर
उसको चिन्ता है केवल इस बात की,
दिल भी आने लगा व्यग्र अनचाहों पर
— विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’