सामाजिक

नारी तेरी कहानी

नाजो से पली
थी घर भर की लाड़ली
सोचा कभी ना था
भविष्य युँ भयानक होगा। 

देखती थी स्वर्णिम सपने
सफ़ेद घोड़े में सवार
एक सुंदर राजकुमार
होंगे न्यारे वो दिन अपने। 

हर क्षेत्र में आगे रहती
हर बार नाम रोशन करती
बचपन निकला ऐसे तो
भविष्य सुनहरा होगा। 

बिन देखे उसे तो
होती ना सुबहा पापा की
फिर साँझ ढले थके कदमो से
बेटी को पुकारा होगा। 

रुक जाते कदम वंही
कुछ ठगा हुआ सा लगता
कालेज पढ़ने ही गयी अभी
तो बिन उसके दिन कैसा होगा। 

घर बैठे ही रिश्ता आया
सुंदर लड़का सबको भाया
सोच समझकर किया जो रिश्ता
की कष्ट कभी बेटी को ना होगा। 

आई वो मधुर बेला
परिणय सूत्र में बंधी तनया
कोई कमी ना पिता ने
की सोचके सब अच्छा होगा। 

दूर देश भी ना दिया बिटिया को
अपनों के बीच रहेगी वो
क्या जाने ये मातपिता
कितना दुखद अंत होगा। 

प्रेमविवाह या हो गठबन्धन
त्रासद युक्त हुआ क्यों जीवन
मातृ बेटी भगिनी और पत्नी
प्रेम करुणा की ही मूर्ति। 

मानव रूप में निकला हैवान
हरदम क्यों करता परेशान
व्यथा कहे बाबुल से कैसे
परम्परा समाज की बनी है ऐसे 

कभी क्रोध की हुई शिकार
कितना सहती अत्याचार
नशे में होता अक्सर वार
जीती भी बन ज़िंदा लाश। 

इहलीला ही समाप्त कर ली कंही
जीने के लिए लड़ती थी बार बार 
फिर लटकाया फांसी में
क्यों उसके ही हमदम ने। 

हर रोज अखबारो को ही
दुखित खबरों से भरा पाऊँ
काली रणचंडी बन जाये नारी
हर एक को समझाऊँ। 

काटो मारो इन शैतानो को
जो नारी का करे अपमान
पनपने ना दो इस विषबेल को
हर सज्जन अब रखो यह ध्यान।
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शालिनी पंकज दुबे

शालिनी पंकज दुबे

स्थान - बैंगलोर शिक्षा-एमएससी प्राणिशास्त्र, एम ए समाजशास्त्र डीएड व्यवसाय- शिक्षीका साहित्यक सफर विभिन्न पत्रिकाओ में लेख कविता लघुकथा प्रकाशित हुआ। फेसबुक समूह में दैनिंक श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान और दो तीन आगामी साँझा संग्रह में भागीदारी