प्रमुख वैश्विक संस्था आर्यसमाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य व इसके उपयोगी राष्ट्रहितकारी कार्य
ओ३म्
आर्य समाज वेदप्रचार का आन्दोलन है जो संसार में भूत और भविष्य के सभी आन्दोलनों से सर्वश्रेष्ठ एवं महान है। वेद प्रचार में श्रेष्ठता व महानता का क्या कारण है? यह जानने के लिए वेद को व्यापक रूप से जानना आवश्यक है। वेद का साधारण भाषा में अर्थ ज्ञान होता है। इस दृष्टि से वेद प्रचार का अर्थ ज्ञान का प्रचार करना है और वस्तुतः वेद प्रचार का यही उद्देश्य है। मनुस्मृति में भगवान मनु जी ने बताया है कि संसार में ज्ञान अमृत के तुल्य है। ज्ञान के दान से बढ़कर संसार में कोई दान नहीं है। अमृत कोई भौतिक पेय नहीं है अपितु यह मृत्यु को पराजित कर सुदीर्घ अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक जन्म मरण के दुःखों से मुक्त रहकर ईश्वर के आनन्दपूर्ण सान्निध्य का पूर्णता से अनुभव करते हुए इस ब्रह्माण्ड में विचरण करने को कहते हैं। इसे विस्तार से जानने के लिए ऋषि दयानन्द लिखित सत्यार्थप्रकाश व अन्य ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। यह भी जानने योग्य तथ्य है कि ज्ञान से मुक्ति होती है तो अज्ञान से मनुष्य बन्धन मे पड़ कर दुःख उठाता व भोक्ता है। हमारा यही हाल है कि हम अज्ञान में पड़े हुए अपने शुभ व अशुभ कर्मों के फलों, सुख व दुःख, को भोग रहे हैं। ज्ञान को प्राप्त कर तदनुसार कर्म व साधना का अभ्यास करना व मृत्योपरान्त जन्म-मरण से मुक्त हो जाना ही मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य है जो संसार के किसी मत-मतान्तर में प्राप्त नहीं होता। वेद और वैदिक साहित्य ही विज्ञानपूर्वक विश्लेषण कर इसको बताते व पुष्ट करते हैं। इसका कारण सभी मतों का अविद्या व अज्ञान से युक्त, अल्पज्ञ जीवात्माओं द्वारा, मनुष्यों द्वारा प्रचार करना व स्वयं उनके व उनके अनुयायियों द्वारा उन मतों की स्थापना करना रहा है। संसार में वेदतर कोई ऐसी पुस्तक नहीं है जिसमें सभी सत्य विद्यायें सहित सभी विषयों का शत प्रतिशत सत्य ज्ञान हो। इस कसौटी व अपेक्षा पर वेद ही सत्य सिद्ध होते है जिसका एक प्रमुख कारण वेद ज्ञान का सृष्टि के आरम्भ में साक्षात् ईश्वर से उसी के द्वारा उत्पन्न ऋषियों व मनुष्यों में से चार श्रेष्ठ उपमा व संज्ञाधारी ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उनकी आत्माओं में प्रेरणा द्वारा वेदों का ज्ञान प्रदान किया जाना है। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश सहित अपने सभी ग्रन्थों का सृजन वेदों व वैदिक शिक्षाओं का बोध कराने के लिए किया है जो कि सभी मनुष्यों के लिए अमृत तुल्य है।
ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की विधिवत् स्थापना सर्वप्रथम मुम्बई के गिरिगांव मुहल्ले में 10 अप्रैल, सन् 1875 की सायं को सभासदों की एक विशेष बैठक में उनके अनेक बार निवेदन करने पर कुछ अवधि तक परस्पर विचार करने के बाद की थी। स्वामी दयानन्द जी उन दिनों देश भर में घूम-घूम कर वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार करते थे जिसकी प्रेरणा उन्हें अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती सहित आदि गुरु परमेश्वर व अपनी आत्मा से हुई थी। यह ऐसा प्रचार था जैसा महाभारत काल के बाद न देखा गया और न सुना गया। विद्वतजन इस प्रचार को देख व सुन कर मन्त्रमुग्ध हो जाते थे और उन्हें यह लगता था कि यह ज्ञान की अमृत गंगा इसी प्रकार सदा सर्वदा प्रवाहित होती रहे जिससे देश की पराधीनता, अज्ञानता, सामाजिक विभाजन और निर्धनता आदि इस अग्नि में भस्मसात् हो जाये। इसकी आवश्यकता लोगों द्वारा पहले भी अनुभव की गई होगी परन्तु वेदों के प्रचार के लिए एक संस्था के स्थापित करने का प्रस्ताव उन्हें मुम्बई में ही मिला था और उसके अनुरूप ही 10 अप्रैल, सन् 1875 को यह शुभ कार्य अर्थात् आर्यसमाज की स्थापना हुई। यह दिन न केवल भारत के इतिहास अपितु विश्व के इतिहास में बहुत महत्व रखता है। इस संस्था की स्थापना करते हुए ऋषि दयानन्द ने इसे ‘आर्यसमाज’ नाम दिया गया। आर्य का अर्थ श्रेष्ठ मानव होता है। श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाले मानव को आर्य कहते हैं और इनके संगठन को आर्यसमाज कहा जाता है। आर्यसमाज ने अपने विगत 142 वर्षों के इतिहास में जो कार्य किये हैं उसने इस समाज को श्रेष्ठ मानवों का संगठन सिद्ध किया है। संसार में इसके सिद्धान्तों व अतीत के कार्यों के समान कोई दूसरा संगठन नहीं है। हमारा सौभाग्य है कि हम विश्व की इस अद्वितीय श्रेष्ठ संस्था के अनुयायी है।
आर्यसमाज की स्थापना वेद प्रचार अर्थात् सत्य ज्ञान के प्रचार के लिए की गई थी जिससे देश व संसार के सभी मानवों का कल्याण हो। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दस नियम सूत्र बद्ध किये हैं। इनका उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है। पहला नियम है ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परिमेश्वर है।’ दूसरा नियम: ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।, तीसरा नियमः वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना–पढ़ना और सुनना–सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ मनुष्यों का) परम धर्म है। चतुर्थ नियमः सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।, पांचवा नियमः सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें।, छठा नियमः संसार का उपकार करना इस (आर्य) समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।, सातंवा नियमः सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। आज इस नियम को सरकार द्वारा देश भर में प्रभावी रूप से लागू करने की आवश्यकता है लेकिन हमें लगता है कि वोट बैंक की देश के लिए अहितकर राजनीति के कारण किसी भी दल के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं हो पाता। इसी कारण कश्मीर से हिन्दू पण्डितों को मौत के डर से पलायन करना वा भागना पड़ा और वहां हमारे सैनिक प्रतिदिन मरते रहते हैं जिन्हें मारने में वहां के अलगाववादी नागरिक भी सम्मिलित होते हैं। सरकार वहां के अलगाववादी लोगों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करने, कठोर दण्ड देने, में विफल दीखती है। आठवां नियमः अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आर्यसमाज के सभी नियम महत्वपूर्ण हैं परन्तु हमें यह नियम अतीव महत्वपूर्ण लगता है। जिस दिन इस नियम को सर्वांश रूप में स्थापित कर दिया जायेगा उस दिन यह देश व विश्व सुख का धाम बन जायेगा। मत–मतान्तर व उनकी असत्य मान्यतायें इसमें मुख्य रूप से बाधक हैं। यह सभी बाधायें वेद प्रचार से ही दूर हो सकती हैं। नौंवा नियमः प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहना चाहिये अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। अन्तिम दसवंा नियमः सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें।
आर्यसमाज की स्थापना सत्य धर्म वा वेद प्रचार करने के लिए हुई थी। यह दोनों उद्देश्य परस्पर पूरक हैं। आर्यसमाज ने देश की आजादी से पूर्व देश की उन्नति के लिए अभूतपूर्व कार्य किया है। ईश्वर का सत्य स्वरूप आर्यसमाज ने ही संसार में स्थापित किया है। ईश्वर उपासना की सत्य विधि भी आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द की देन है। अग्निहोत्र यज्ञ के सत्यस्वरूप का पुनरुद्धार व उसका प्रचलन भी आर्यसमाज ने किया। देवता की सही परिभाषा आर्यसमाज की ही देन है। जो जड़ व चेतन पदार्थ अपने अस्तित्व से दूसरों को कुछ देते हैं वह सभी देवता कहलाते हैं। वायु हमें प्राण वायु देने से देवता है तो अग्नि प्रकाश व दाहकता के गुण के कारण देवता है। माता, पिता सन्तान को जन्म देने, पालन पोषण करने व सन्तानों को अच्छे संस्कार देने के कारण से देवता हैं। ईश्वर महादेव इसलिये है कि वह सब देवों का भी आदि देव है। आर्यसमाज ने युवावस्था में विवाह करने का आन्दोलन किया, सती प्रथा का विरोध किया, अस्पश्र्यता का विरोध करने सहित गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया। दलितों सहित सबको समान व निःशुल्क वेदों, सभी ग्रन्थों व विषयों की शिक्षा का समर्थन किया। हिन्दी व संस्कृत को उसका उचित स्थान देने की वकालत करने के साथ आन्दोलन किये व गुरुकुल व डीएवी स्कूल एवं कालेज देश भर में स्थापित किये। कम आयु की विधवाओं के पुनर्विवाह का आपदधर्म के रूप में समर्थन किया। अविद्या पर आधारित एवं वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा सब प्रकार के पतन का कारण है अतः इसका प्रमाण पुरस्सर विरोध किया। अवतारवाद की मिथ्या मान्यता का खण्डन किया। मृतक श्राद्ध अशास्त्रीय व अनुचित है, इसका भी प्रचार किया। फलित ज्योतिष भी मिथ्या ज्ञान है, इसका प्रचार भी आर्यसमाज करता है। समाज में जन्मना जाति पर आधारित विवाह के स्थान पर गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित विवाहों का समर्थन किया जिसका सुप्रभाव समाज में देखने को मिल रहा है। छुआछूत को समाप्त करने में भी आर्यसमाज की महत्वपवूर्ण भूमिका रही है। आजादी दिलाने व स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी आर्यसमाज का सबसे बड़ा योगदान है। देश में आजादी के आन्दोलन का महौल आर्यसमाज ने ही बनाया। देश को आजाद करने की सबसे पहले मांग महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश व आर्याभिविनय में सन् 1875 व उसके आसपास की थी। इस विषयक उनके अनेक वचन मिलते हैं जो उनकी मृत्यु के षडयन्त्र के वास्तविक कारण बने। ऐसे अनेकानेक देशहितकारी कार्य करने के कारण आर्यसमाज देश की प्रमुख व सर्वोपरि महान् संस्था सिद्ध होती है।
आर्यसमाज की स्थापना न होती तो आज हमारा देश बेहाल होता। जो ज्ञान विज्ञान की उन्नति आज दीखती है उसकी नींव में हमें आर्यसमाज ही दिखाई देता है। जिस राजनीतिक दल ने आर्यसमाज को जितनी मात्रा में अपनाया वह उतना ही आगे बढ़ रहा है। आर्यसमाज ईश्वर की शिक्षाओं का प्रचार व प्रसार करने वाली एकमात्र वैश्विक संगठन वा संस्था है। यह देश व विश्व में बढ़ेगी तो देश व विश्व आगे बढ़ेगा। विश्व में सर्वत्र सुख व शान्ति स्थापित होगी। अन्य कोई उपाय दिखाई नहीं देता है। आर्यसमाज को अपनाना सभी देश व विश्व के बन्धुओं का कर्तव्य है। सभी आर्यसमाज के अनुयायी बने और अपना व विश्व का कल्याण करें। हम सबको आमंत्रित करते हैं। आर्यसमाज की स्थापना को केन्द्र में रखकर यह लेख देश व सभी बन्धुओं को सादर समर्पित है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य