“अमीरी”
मुक्त काव्य
अमीरी
उन्मत्त पवन के झोंके सी
करें आंखे बंद झरोखे सी
उच्च शोर विध कानों में
नाशिका श्वसन रुध कर देती
फूलती और पचकती है
तमस अंतस में भर देती
अमीरी अभिलाषा सबकी
फिर क्यों नहीं जनजन धन देती॥
अमीरी
तख्त स्वच्छ सिंहासन की
संचय निधि सुशासन की
रचती पचती अरमानों में
हृदय को गदगद कर देती
फलती और फलाती है
अंतस में करुणा भर देती
अमीरी पथ दिलवालों की
जन जन को अपनापन देती॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी