कविता

अखबार

सुबह सुबह 
जैसे ही ऑखे खोलती हूं 
सब काम छोड़ 
अखबार ले बैठती हूं 
जामाती हूं ऑखे उसपर 
कहीं आज न दिख जायें 
मेरे देश के सपूतो की लाशें 
किसी कोने मे न मिले 
बेटियो के लूटते अश्मत
नही पढना चाहती हूं 
इन खुनी अखबारो को
लेकिन अक्सर ही
खुन से रंगीन होते हैं ये
कही भाई ने भाई को मारा
तो कही बहू को जिंदा जलाया
कही शरहद पर गोली चली 
तो कही हुये शहीद जवान 
ऐसे रोज रोज के अखबारो से
अब मन भी ऊब चुका हैं 
शुभ संदेश तो लगता अब
छपना बंद हो गया हैं 
खुनी अखबारो का 
ताता लग गया हैं ।
निवेदिता चतुर्वेदी ‘निव्या’

निवेदिता चतुर्वेदी

बी.एसी. शौक ---- लेखन पता --चेनारी ,सासाराम ,रोहतास ,बिहार , ८२११०४