लघुकथा…..
“अहमियत कूँए की”
झिनकू भैया के दरवाजे का कुँआ है तो बहुत ही पुराना पर आज जहाँ सारे कुएं समय की मार से पट गए हैं वही यह कुँआ अपनी अहमियत पर पूर्णतया काबिज है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हैंड पम्प ने कुँवों की बाट लगा दी, तो बोतल और आरो के पानी ने हैंड पम्प की। हैंड पम्प तो अब भी लाचारी से जूझते प्यासे होठों को पानी पिला रहे हैं पर कुँआ तो श्रापित ही हो गया है, अगर कुत्ता काटने पर कुँआ झांकने और लड़के की शादी में परिछावन के समय कूँए की परिक्रमा करके उल्टे मुंह होकर दाहिने पैर से जलती हुई दीया को उसमें धकेलने की रस्म न होती तो शायद कोई उसमे झांकता भी नहीं।
अभी कुछ दिन की ही तो बात है जगपति को कुत्ते ने काट लिया था तो सात कूँए झाँकने के लिए तीन गाँव के चक्कर लगाने पड़े थे। यह अलग बात है कि बारह सौ के तीन इंजेक्सन तो ठोकवाना ही पड़ा था कारण कुत्ते की पूँछ सीधी हो गई थी इसका मतलब वह पगला गया था। अगर कुत्ते की पूँछ सीधी होती तो बारह सौ के कर्जे से जगपति को मुक्ति मिल जाती और कूँए से जहर उतर जाता पर हाय रे किस्मत, कुत्ते की दुम भी सीधी हो गई!!!!!!!!!!
खैर, जगपति और उनको काटने वाले कुत्ते का कूँए से क्या लेना देना, वे तो झाँक कर चले गए पर झिनकू भैया को मौका मिल गया अपने कूँए की अहमियत बताने की। हर लोग उन्हें इस कूँए को लेकर न जाने क्या से क्या सुना जाते हैं, कोई कहता है जगह रोक रखा है, कोई कहता है इसका पानी जहर हो गया है, कोई तो यहाँ तक सुना गया कि जबतक कोई इसमें कूदकर अपनी जान नहीं दे देता तबतक यह पटने वाला नहीं है। सबकी अनसुनी करके झिनकू भैया अपने फैसले पर अडिग हैं और अपने कूँए को अड़ीखम रखे हुए हैं। जलस्रोत कभी बंद नहीं करना चाहिए इस दृष्टांत पर डटें हुए हैं। उसी कूँए के पानी से खुद नहाते हैं और अपनी गाय तथा अपने पौधों को जल पिलाते हैं। कुछ मेंढक उस कूँए में आज भी एक साँप के साथ रहते हैं जिनके टर्र टर्र से उन्हें हमेशा सावनी कजरी की याद आती है। एक कछुआ और कुछ मछलियाँ भी उसी में पाल रखें हैं, नित्य उन्हें दाना खिलाकर आनंद लेते हैं और जब कभी समय मिलता है उसमें झाँकते भी रहते हैं न जाने किस गली से कुत्ता आकर काट जाय? आजकल लोग बाग मछलियों को भी शीशे के जार यानी एक्योरियम में सजाकर बुलबुले का मजा ले रहे हैं। कुँआ और पोखर पुराने परवरिश हो गए हैं जिसे लोग पाटने में ही भलाई समझ रहें हैं। एक्योरियम और गमला नए श्रृंगार हैं जिसे खूब सजाया जा रहा है वास्तु का चलन तेजी से हुआ है, काश लोग कूँए के वास्तु को पहचान पाते और पूर्वजों को समझ पाते…..!!!!!!!
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी