कविता

कविता – गरीबी

आंकड़ो में रोज घटती जा रही है गरीबी,
फाइलों में ही सिमटती जा रही है गरीबी।
देखना है गांव की गलियों में आके देखिये,
शहर की झुग्गियां तुमको बता देंगी गरीबी।।

फाइलों के चश्मे से सबकुछ सुहाना दिख रहा,
भरपेट खाने के लिए आदमी है बिक रहा।
योजनाएं सैकड़ों लाती ये सरकार हरदिन,
असर इनका अफसरों व प्रधान जी पर दिख रहा।।

फंस गया मंगरू बेचारा कर्ज के जंजाल में,
उसने रचाया ब्याह था बेटी का पिछले साल में।
साल भर में कर्ज दुगने से ज्यादा बढ़ गया,
खेती किसानी का सहारा मौसम की भेंट चढ़ गया।।

सेठ जी आये उसे घुड़किया के चल दिए,
हफ्ते भर में अदायगी का फरमान जारी कर दिए।
गिरवीं जमीं बेचने का विकल्प केवल रह गया,
खोज के उपाय आसां मंगरु फाँसी चढ़ गया।।

ओमप्रकाश पाण्डेय सोहम

Writer/Blogger बहराइच, उत्तर प्रदेश