कविता : मैं अंधेरों का गुण गाता हूँ
परछाइयों तक को अलग कर देती है
रौशनी जब-जब नज़र आती है
भिन्न दिखता है हर कोई
अलग रूप दशा आकृति प्रवृत्ति
मैं अंधेरों के गुण गाता हूँ
मेरी परछाईं जो मुझमें समा जाती है
मैं खुद से मिल पाता हूँ
जुगनुओं सा जो जलता हूँ.
एक लौ खुद में जलाये
रुकता हूँ फिर भी चलता हूँ
थोड़ी ठोकर लगती है, थोड़े आंसू बहते हैं
मगर मेरे जख्म सभी से छिपाए रखती है
कभी गिर जाता कभी हार मान लेता हूँ
ख़ुशी है हार अंधेरों में दिखाई नहीं पड़ती
चलता हूँ हर गम भुलाकर, मुस्कुराता सा
हर कदम मस्ती में बढ़ाए जाता हूँ
अंधेरों में हदें दिखाई नहीं पड़तीं
— आदर्श सिंह
सुन्दर !
Aabhaar❣