आज की स्थिति तो राम राज्य लायक नहीं हो सकती!
दशहरा असत्य पर सत्य की विजय। दुष्ट पर सज्जन की विजय का पर्व। सामाजिक दृष्टि से किसान जब फ़सल को काटकर घर लाते हैं, तो उसे भगवान की देन मानकर उनकी पूजा आराधना करते हैं। यह दशहरे का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व है। आज के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश को देखकर बहुतेरे सवालात जन्म लेते हैं। क्या हम उस उद्देश्य को सफल बना पा रहें हैं? जिस के लिए विजयदशमी का पर्व सदियों से मनाते आ रहें हैं। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। क्या हमारा समाज इस प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ पा रहा है। आज समाज में हत्या, लूट, हवस का बोल-बाला है। फ़िर ऐसा तो नहीं हम इन तीज-पर्वों को मात्र संस्कृति और सभ्यता के नाम पर ढो रहें हैं। वर्तमान परिवेश को देखकर तो यहीं लगता है। समाज में बढ़ते एकाकीपन और आपसी रिश्तों की कमजोर होती नीव इसी को दर्शाती है। जिस कन्या की नवरात्रि में पूजन होता है, उसी की अस्मिता और आबरू के साथ साल भर खिलवाड़ होता है। फ़िर हम यह कैसा द्विअर्थी संवाद को स्थापित करते हुए समाज की स्थापना कर रहें हैं। जिस समाज में मां के रूप में मां दुर्गा को प्रस्थापित किया जाता है, उसी समाज में आधुनिकता की चादर तले बुजुर्ग माता-पिता को समाज त्यागकर उन्हें मरने के लिए सड़क पर छोड़ देता है।
फ़िर किस संस्कृति और सभ्यता का दिखावा आज हमारा समाज रावण दहन और विजय दशमी का पर्व मनाकर देना चाहता है। आज के नज़ाकत में जिस तरीके की धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्रवाद की राजनीति लोकतंत्र पर हावी है। दंगा- फ़साद राजनीति में फलने- फूलने की सीढ़ी हो चुकी है। उस दौर में मशहूर शायर मुन्नवर राणा का एक शेर स्थितियों से भलीभांति रूबरू कराता है, कि सियासत को लहू पीने की लत है, वरना मुल्क़ में सब खैरियत है। हम किस वातावरण का निर्माण कर रहें हैं? हम उससे अनभिज्ञ तो नहीं बन बैठे हैं। समाज में सुरक्षा की कोई ठौर नहीं बची है। फ़िर हम किस लिए इन पर्व को मना रहें हैं। उस पर विचार- विमर्श करना होगा। किसान भी पीड़ित है। कन्याओं को अपने आस- पड़ोस के लोगों से ही भय उत्पन्न हो गया है। सत्य का राजनीति ही क्या सामाजिक परिवेश में ही वास्ता दूर-दूर तक नहीं दिखता। ऐसे में सवालों की लंबी फेहरिस्त है। उसका जवाब भी समाज को ढूढ़ना चाहिए। आज देश को रावण रूपी अहंकारी पुरुष से पीड़ित नहीं है। पीड़ित है तो महंगाई, भ्रष्टाचार के जिन्न से, और दुराचारी होते समाज से है। क्या इस को दूर करने की कोई सामाजिक और राजनीतिक पहल हो रही है। सरकारी कागजों के इतर और प्रशासनिक डंडे पर सुधार की झूठी रवायत ही दिखती है। क्योंकि अगर लोकतंत्र के रक्षक ही भक्षक हो जाए, फ़िर स्थितियां तो हरियाणा जैसे ही उत्पन्न होती हैं,। फ़िर इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं कि जा सकती। आज राजनीति में विचारों का मरणसन्न अवस्था दिखती है। अब उसको जीवित करने के लिए किसी राम को जन्म लेना होगा। लोकतंत्र अर्थतंत्र की परिपाटी बनता जा रहा है, जो सबसे बड़ी रुग्णता की स्थिति है।
सत्ता साधना कैसे भी हो, यह एकमात्र उद्देश्य जनता के मतों के साथ खिलवाड़ करना है। देश में राजनीति का स्तर ही नहीं गिरा है। सामाजिकता का ताना-बाना भी टूट चुका है। आदमी, आदमी होकर भी दानवी प्रकृति को अपने- आप में समाहित करता जा रहा है। तभी तो समाज अनेकोनेक सामाजिक कुरीतियों और आडम्बरों से दामन नहीं छुड़ा पा रहा है। आज समाज भय, घूसखोरी, लूट, अस्मिता के साथ खिलवाड़ और सामाजिक वैमनस्य के विषाणुओं से ग्रषित हो चुका है। जिसका कोई टीकाकरण भी नहीं न व्यवस्था ढूढ पाई है। और न हमारे सामाजिक ताने-बाने ने। फ़िर जब तमाम संक्रमक रोगाणु समाज को अपनी गिरफ्त में जकड़े हुए हैं। फ़िर किस संस्कृति और सभ्यता का राग हम गाते फिर रहें हैं? समाज रावण जैसे दुष्ट से पीछा भले छुड़ा लिया है, लेकिन कलयुगी राक्षसी प्रवृति से समाज और हमारी बहन- बेटियां कब आज़ाद होगी? समाज भ्रष्टाचार से मुक्त कब होगा? वैमनस्यता की ज्वालामुखी कब शांत होगी? राजनीति राज्य की धर्मनीति कब बन पाएगी? ऐसे सवालों की लंबी सूची है, लेकिन देश की व्यवस्था और समाज तो आज दिखावे पर जोर दे रहा है। यह समाज की सबसे दुःखद स्थिति है। किसान अन्नदाता होकर भी भूख से मर रहा है। बच्चियां और स्त्रियां देवी स्वरूपा होकर भी समाज में छली जा रही और उत्पीड़ित हैं। फ़िर कैसे राम राज्य की बात हम कर रहें हैं। यह तो आदर्श देश बनाने की दिशा से भी हमारा समाज भटक चुका है। फ़िर विजयदशमी और नवरात्रि के पर्व का निहितार्थ सच्चे अर्थों में निकल कर कहाँ से आएगा? पहले सामाजिक और राजनीतिक सोच में बदलाव की आवश्यकता समय की जरूरत है। उसके पश्चात ही राम राज्य और आदर्श समाज की स्थापना की जा सकती है।