सामाजिक

खुले में शौच

देश की विडंबना देखिए स्वच्छ भारत के अंतर्गत खुले में शौच मुक्त भारत की मुनादी पिटी जा रहीं है, लेकिन जहां शौचालय की जरूरत है, वहां तक उसकी पहुँच है ही नहीं। फ़िर ऐसे में अगर महाराष्ट्र के जल संसाधन मंत्री हाईवे किनारे खुले में शौच क्रिया करते हुए दिख जाते हैं। तो यह योजना की नीतियों और कार्यप्रणाली पर सवालियां निशान खड़ा करती है। नेताओं ने भले ही स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत झाड़ू उठाकर फोटोशूट करवा लिया हो, लेकिन हकीकत यही है, कि हाइवे और गांव को जोड़ने वाली सड़कों के साथ रेलवे पटरियों के आसपास स्वच्छ भारत नाम के मिशन की हवा शायद लगी नहीं। तभी वहां शौचालय दिखते नहीं। इसके अलावा जहां ग्रामीण इलाकों आदि में बने शौचालय हैं भी, वहां पानी की समस्या आम बात है। इसके साथ अगर मध्यप्रदेश के सात हजार 180 स्कूलों में छात्रों और पांच हजार 945 स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय हैं ही नहीं, फ़िर स्त्री सशक्तिकरण की बातें भी सियासी फ़रेब से ज्यादा कुछ समझ में आती नहीं।

दूसरी औऱ वाहवाही की जल्दबाजी में शौचालय बनाने के फ़ायदे-नुकसान पर ध्यान केंद्रित किया गया नहीं। तभी तो ग्रामीण क्षेत्रों में सीवेज आदि है नहीं। ऐसे में गंदगी के निपटान की कोई रूपरेखा दिखती नहीं। टैंक से निकलने वाली गंदगी पास के वातावरण में घुलकर बीमारियों को जन्म देती है, उससे निपटने की कोई नीति दिखती नहीं। दूसरी ओर देश में बुनियादी साफ सफाई के बिना रहने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है। तो चिंताजनक स्थिति को व्यक्त करती है। हुक्मरानी व्यवस्था ने भी स्वच्छता की दिशा में सकारात्मक कार्य किया है, लेकिन व्यापक पैमाने पर अभी नीतियों में सुधार की आवश्यकता है। स्वच्छता, स्वस्थ समाज की परिचायक होती है। ऐसे में बिना स्वच्छता के स्वस्थ भारत की परिकल्पना अधूरी लगती है। आज देश मे जब एक व्यक्ति-विशेष की छवि निर्माण पर और राजनीतिक हितोउद्देश्य के लिए 3755 करोड़ रुपए ख़र्च पिछले साढ़े तीन वर्षों में कर दिया गया। तो ऐसे में इन पैसों की पहली जरूरत कहाँ थी, इससे हुक्मरानी व्यवस्था अनजान क्यों बनती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की क़रीब 35.5 करोड महिलाओं और लडकियों को अब भी शौचालय का इंतजार है, तो इन पैसों की जरूरत कहाँ थी, यह सरकारी तंत्र को सोचना चाहिए था। रिपोर्ट के मुताबिक देश में अभी भी 73.2 करोड लोग खुले में शौच करते हैं या फिर असुरक्षित शौचालयों का इस्तेमाल करना पड़ता है। फ़िर जब जनता ने पांच साल के लिए चुनकर सत्ता दी ही है, तो सरकार को अपने प्रचार- प्रसार से पहले जनमहत्व के मुद्दों को प्राथमिकता देनी चाहिए थी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896