कविता
कविता
प्रतिस्पर्धा
देखते हो आप
हर जगह
एक प्रतिस्पर्धा
हर कोई
आगे निकलना
आगे बढ़ना
चाहता है
इसके लिए
दिन रात
सुबह शाम
दौड़ रहा
लगातार
चल रहा
एक अंधी दौड़
जिसमें
शांति नहीं
केवल होड़ है
जिसका
न आदि न अंत है
निन्यानवें के फेर सा
क्या चाहता आदमी
धन जोड़ना
नाम कमाना
दहशत फैलाना
दबदबा बताना
आखिर क्यों है दौड़
यह कैसी प्रतिस्पर्धा
जिसमें सबल विजय
निर्बल की हार
क्या यही है प्रतिस्पर्धा
जहाँ कतारें
लंबी लम्बी कतारें
उनमें खड़े नोजवान
पिचके गाल
सिकियाँ पहलवान से
जवानी का तन
कंकाल सा
नोकरी की आस में
कभी चक्कर आते
कभी उठता
कभी बैठता
कितना संघर्ष
कितना श्रम
फिर भी
न कोई
रोजगार
घर लौटे
खाली हाथ
कवि राजेश पुरोहित