राजनीति

हक

आज हम आजादी के 70वें साल में सांस ले रहे हैं। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वंतत्र हुआ और लोकतांत्रिक देश के रूप में पूरी दुनिया के सामने आया। गुलामी की बेड़ियों को काटने के लिए देश के वीर सपूतों ने बलिदान दिया। देश के लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले वीर सपूतों ने ये न सोचा होगा कि आजाद भारत के लोगों की तरक्की में जातिप्रथा, भ्रष्टाचार व भाई-भतीजावाद रोड़ा बन जाएगा, जो देश को खोाखला बना रहे हैं।

भारत में कई संस्कृति व धर्म के लोग रहते हैं, इनकी मान्यताएं, रीति-रिवाज के बीच टकराहट देश के हित में नहीं है। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेता सुभाषचंद्र बोस, रानी लक्ष्मीबाई जैसे देशभक्तों ने गुलाम भारत को आजादी दिलाने के लिए संघर्ष किया, इनका कोई स्वार्थ नहीं था, बस था आंखों में सपना कि मेरा प्यारा वतन भारत आजाद हो ताकि देशवासी सम्मान से जी सके। सवाल उठता है कि आखिर आज हम स्वंतत्र तो हैं लेकिन हमारी सोच आज भी हजारों वर्षों से चली आ रही दकियानूसी रीति-रिवाजों में जकड़ा हुआ है। आजादी के 69 साल में जितना विकास होना चाहिए था, उतना विकास इसी कारण से नहीं हो पाया है कि हम अभी भी जातिप्रथा के विचारों में जकड़े हुए हैं। जाति व्यवस्था में दलितों के साथ छुआछूत व उन्हें हेय दृष्टि से देखना, उन्हें प्रताड़ित करने की घटना आज भी थम नहीं रही है। मानव का मानव से यह भेद आज हमें हजारों साल पीछे ढकेल दिया है। वहीं देखा जाए तो जातिप्रथा का दंश झेल रहे दलितों के साथ दुव्र्यवहार की घटनाएं हमारे समाज का घिनौना चेहरा है। सिर पर मैला ढोने की खबरों से सरकार सबक नहीं लेती है। देखा जाए तो हम गणतंत्र का हिस्सा हैं, किसी धर्म व जाति से पहले हम भारतीय हैं।

बांटने की राजनीति का क्यों बने हम हिस्सा

जातिप्रथा समाज में सबसे बड़ी बुराई बनी हुई है। हिंदू समाज अगड़े, पिछड़े व दलित जातियों में बंटा है। यही नहीं अलग-अलग धर्म के लोगों में भी अपनी संस्कृति व विचारों को सर्वश्रेष्ठ बताने की होड़ ने एक दूसरे के बीच कटुता का विष घोल दिया है, इस कारण से मानवीय जीवन मूल्यों को भुला दिया गया है। दो धर्मों के बीच राज करने की नीति के लिए बांटने की लकीर खींचने का नींव अंग्रेजों ने ही डाला था। हिंदू व मुस्लिमों के बीच मतभेद पैदा करने, फूट डालों और शासन करों की नीति ही आज स्वतंत्र भारत की राजनीति में वोट बैंक पाने का आसान तरीका है। दो धर्मों के बीच तुष्टीकरण बनाम अतिवादी नीति ने विकास के मुद्दे को धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है। विकास का मुद्दा चुनाव आते आते धर्म और जाति की राजनीति में बदल जाता है। जाहिर है कि राजनीति दलों के लिए सत्ता में वापसी करने के लिए जाति व धर्म विशेष का धु्रवीकरण कर वोट बैंक को साधना आसान है। वहीं मूल समस्या पर जनता की नजर न जाए, इसलिए धार्मिक भावनाओं को भुनाना राजनीतिक दल शुरू करते हैं। लेकिल सच्चा व वाजिब सवाल तो यह है कि हम विकास के पैमाने पर तब तक खरे नहीं उतरेंगे जब तक हम जातीय व धार्मिक भेदभाव को त्याग नहीं देते हैं। राजनीतिक दल हमारे इसी कमी का फायदा उठाकर वे हमसे चुनाव के समय बार्गनिंग करते हैं कि फला दल एक धर्म का हितैषी है तो हम तुम्हारे धर्म के हितैषी है या हम इस जाति की तरक्की को ध्यान में रखेंगे, बस हमें वोट दो, हम तुम्हारी जाति, तुम्हारे धर्म का भला करेंगे। इस तरह की बातें आपको इन राजीनैतिक दलों के भाषण व इनके मैन्यूफेस्टों से आप आसानी से समझ सकते हैं। अगर आप काम व विकास को तवज्जों दे ंतो मजाल नहीं कि राजनीतिक दल का कोई नेता आपको जाति या धर्म के नाम पर बरगला सके। लेकिन विडंबना तो यही है कि चुनाव में अगर उम्मीदवार की जाति या धर्म देखकर हम अपना प्रतिनिधित्व चुनेंगे तो हमें सही विकास के लिए एक और 69 साल के समय का इंतजार करना होगा। जिस तरह से हम बीमार होने पर इलाज के लिए डाॅक्टर की जाति नहीं देखते हैं बल्कि उसकी काबिलियत देख कर इलाज के लिए उसे चुनते हैं, इस तरह बीमारी से जल्द छुटकारा पाते हैं, क्यों न तब हम इस देश के बीमार सिस्टम को दुरूस्त करने के लिए हम अच्छे और कर्मठ प्रतिनिधि का चुनाव करें, न कि उसका धर्म व जाति देखकर। सरकारी सिस्टम को रिपेयर करने के लिए जब तक भारत का नागरिका खुद जिम्मेदारी निभाने के वास्ते सामने नहीं आएगा तब तक हम सही मायने आजाद नहीं है। देश का जिम्मेदार व जागरूक नागरिक ही देश को सही रास्ते में ले जाता है, क्योंकि लोकतंत्र में उसके पास वोट का अधिकार है। वह राजा नहीं प्रतिनिधि चुनता है, अगर उसका प्रतिनिधि उनके वादे पर खरा नहीं उतरे तो उसे बाहर का रास्ता दिखा सकता है। लेकिन जब जाति व धर्म की दीवारें बीच में खिंच जाती हैं तो हम अपने जाति व धर्म के नकारे प्रतिनिधित्व को बाहर का रास्ता दिखाने में पीछे रह जाते हैं, और तब इसी का फायदा राजनीतिक दल उठाते हैं। अब समय आ गया है कि हम अपने चुने हुए प्रतिनिधि से हिसाब ले, जानकारी इकट्ठा करें, मोहल्ला या गांव सोसाइटी बनाकर उन्हें चिट्ठी पकड़ाए और उनकी जवाबदेही तय करें कि कितना विकास हुआ। हमारे क्षेत्र की सड़कें, बिजली, पानी की व्यवस्था और किए गए काम की क्वाॅलिटी को भी चेक करें। तब उनको पता चलेगा कि जनता ही है लोकतंत्र में सर्वोपरि।
महिलाओं को कब मिलेगी आजादी
रूढ़ीवादी समाज का चेहरा महिलाओं के प्रति हजारों साल बाद भी नहीं बदला। लोकतंत्र की स्थापना के बाद महिलाओं के संरक्षण में कई कानून बने लेकिन समाज में महिलाओं के प्रति सोच में बदलाव नहीं आया। महिलाओं के प्रति हिंसा व उनसे भेदभाव का नजरिया समाज में बदला नहीं है। महिलाओं की देह को उपभोग समझने वाले पुरूष इसी समाज का हिस्सा है, जो मौका पाकर उन पर हमला करना व अपमानित करने से भी तनिक चूकते नहीं हैं। लोक लाज में लिपटी महिलाओं के इज्जत को सरे आम नीलाम करने से भी अपराधी प्रवृति के लोग जरा भी नहीं हिचकते हैं। वहीं सभ्य समझा जाने वाला समाज महिलाओं के प्रति भेदभाव रखता है, उन्हें दोयम दर्जें का मानता है। जब महिलाएं अपने लिए धर्मिक अधिकारों, समाज में अपनी इच्छा से जीने की आजादी के लिए मांग करती हैं तो इसे पुरूष समाज अपने मान सम्मान के झूठे दंभ में इनकी जायज मांगों को कुचल देते हैं। महिलाओं के प्रति समाज का नजरियां ही महिलाओं के प्रति छेड़छाड़, उन्हें अपमानित करने और यहां तक की बलात्कार के अपराध को बढ़ावा देता है। इस कारण से महिलाओं के मानसम्मान व उसके इज्जत को तार-तार करने वाला अपराधी जानता है कि महिलाएं कमजोर हैं और समाज बलत्कार जैसे मामलों में भी पीड़ित महिला को ही दोष देती है। यानि लोकलाज के डर से अपने ऊपर हुए दरिंदगी पर खून के आंसू रो लेती है और किसी से नहीं बताती है, इस कारण से अपराधी का मनोबल और बढ़ता है। इस तरह की कई घटनाएं अखबरों की सुर्खियां बनती हैं। जहां पर महिलाओं से अपराधी कई बार अपराध करता है और बदनाम करने की धमकी देता है। पीड़ित महिला लोकलाज व समाजह की डर से वे अपराधी के ब्लैकमेलिंग का बार-बार शिकार होती है। इस तरह के मामले में पुलिस और समाज को संवेदनशीलन होना चाहिए, अपराध की शिकार महिला को हिम्मत और सहानुभूति देनी चाहिए व अपराध के प्रति लड़ने के लिए उसके हौसले बुलंद करने में मदद करनी चाहिए। जबकि वहीं पुलिस व समाज इसके उलट पीड़िता के साथ अपराधी की तरह व्यवहार करता है। महिलाओं के प्रति हिंसा, छेड़छाड़ व बलात्कार जैसे मामलों में असंवेदनशील राजनीति और नेताओं के बयान भी महिलाओं पर हो रहे अत्याचार का भी एक कारण है। सभी दलों के बड़बोले नेता महिलाओं पर अमर्यादित टीका टिप्पणी करने से भी नहीं चूकते हैं। बीजेपी के नेता दयाशंकर का मायावती पर टिप्पणी निंदनीय है ही, साथ में उसके जवाब में बसपा कार्यकर्ताओं और बसपा नेताओं का दयाशंकर के पत्नी व बेटी पर अभद्र टिप्पणी से यही साबित होता है कि महिलाओं का अपमान होना आम है। ऐसे में जब राजनीति दल संजीदा नहीं हैं तो महिलाओं के प्रति अपराधों की घटना को अंजाम देनेवालों अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं। बात साफ है कि दलितों, अल्पसंख्यकों, गरीबों व महिलाओं को पर हो रहे अत्याचार इस बात का सुबूत है कि उन्हें अभी भी समानता का अधिकार नहीं मिला है।
दलितों पर राजनीति नहीं नीति चाहिए
संविधान सबके साथ समानता का व्यवहार करने को कहता है, पर समाज में कथित लोग दलित, कमजोर वर्ग व महिलाओं का उत्पीड़न करने से नहीं चूकते हैं। आखिर आजादी के इतने साल बाद भी समाज में महिलाओं व दलितों के साथ इस तरह का अमानवीय व्यवहार क्यों किया जा रहा है। दलितों पर हो रहे अत्याचार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुप्पी तोड़नी पड़ी, कहा कि दलितों पर हमला करना है तो मुझ पर हमला करें। जाहिर है इन सब के जड़ में जातिवाद की राजनीति, वोट बैंक को अपनी झोली में आसानी से डालने के लिए हिंदूवाद व अल्पसंख्यकवाद की राजनीति है। तो वहीं जातिवाद में आसानी से अगड़ों, पिछड़ों व दलितों में बांटकर वोट बैंक तौलना आसान हो जाता है।
चाय की दुकान से लेकर मीडिया की खबरों और राजनीति पार्टी के सियासी तेवर में सारा विश्लेषण जातिवाद व धर्मिक आधार पर होता है कि ये जाति आमूक पार्टी का वोट बैंक है। दुखद यही है कि इसी आधार पर तय होता है, चुनाव में जीत व हार। तब आप ही सोचिए जब हम जाति और धर्म के आधार पर किसी विशेष दलों को वोट देंगे तो सत्ता पाए सियासी दलों को सभी का विकास करने की क्या जरूरत है, उनका वोट बैंक उनके जाति विशेष प्रेम व किसी धर्म के आधार पर बंटे वोट उन्हें हर चुनाव में मिलना तय है। चाहे फिर महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार की बात हो, या खुदकुशी करते किसान हो, या नौकरी के खातिर दरदर की ठोकरें खा रहा बेरोजगार हो या बिजली, पानी, सड़क की बदहाल व्यवस्था हो। फिर इन मुद्दों पर कोई जनप्रतिनिधि अपना सर क्यों खपायेगा, जबकि उसे मालूम है कि उसे पका पकाया वोट बैंक मिलने वाला है। यही वजह रही है कि लगभग सभी दल टिकट बांटते वक्त जाति व धर्म को ध्यान में रखकर उम्मीदवार खड़ा करते हैं। जाहिर है चुनाव में जीत के लिए जातिगत आधार पर उम्मीदवार खड़ा करना परंपरा बन गई है तो उसी जाति के ऐसे व्यक्ति को चुना जाता है जो पैसा खर्च करने की कूबत रखता हो। जब कोई नेता पर्टी छोड़ता है या निकाल दिया जाता है तो वह पार्टी पर पैसा लेकर टिकट बांटने का आरोप जड़ देता है। यानी हर हाल में जातिगत व धर्म के बंटवारे में नेता अपने लिए भुनाते हैं, जब टिकट लेना हो और जब पार्टी छोड़नी हो तब। इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि राजनीति दल ने एक ऐसा रास्ता अख्तियार किया है, जो हिंदुस्तान को हजारों साल पीछे ले जा रही है। जातिगत राजनीति ने विकास को बाधित किया है, जिसके कारण राजनीति से भ्रष्टाचार सरकारी कार्यालयों में आम हो गया है। सरकारों ने समाज में जातिवादी की खाई को भरने के बजाय इसे और गहरा व चैड़ किया है।

चाहिए ठोस विकास, नहीं चाहिए लोक लुभावन वादे
69 साल से गरीबी और बेरोजगारी हटाने के नाम पर वोट लिया जाता रहा है लेकिन गरीबी की परिभाषा बदल गई, लेकिन गरीबों के हालत में कोई सुधार नहीं आया है। बढ़ती बेरोजगारी पर लगाम न लगा पाने की अपनी नाकामयाबी को छिपाने के लिए लैपटाप व बेरोजगारी भत्ता देने का नया तरीका ईजाद किया, लेकिन ये भत्ता केवल चुनाव जीतने का बहाना ही है। भारत में 70 प्रतिशत युवाओं की तादाद पर इस तरह के नुस्खे कायमयाब भी हो जाते हैं, लेकिन इस बहाने भी जीत के बाद सरकार विकास न करें, उसका काम विशेष जाति वर्ग के लिए हो तो जाहिर उसे दुबारा सत्ता की चैखट पर पहुंचाने वाले हाथ उनसे दूर हो जाएंगे। इसीलिए लोकसभ व विधानसभा चुनाव में जाति व धर्म फैक्टर के अलावा विकास का मुद्दा भी हावी रहता है, जिसे नजरअंदाज करना उस पार्टी के लिए हार का सबब बन सकता है। यही हाल पिछले लोकसभा चुनाव में रहा विकास से शुरू बातें आकर जातिवाद पर अटकी। भारत में धर्म व जाति की राजनीति का यह खेल तुष्टीकरण बनाम अतिवाद पर बखूबी चलता है, इसके लिए बकायदा हर पार्टी बड़बोले नेताओं को छूट भी देते हैं, ताकी जातिवाद व धर्म की भावना के सहारे वोटों का ध्रुवीकरण कर सके। नेताओं के जातिवाद व धर्म पर दिए भड़काऊ भाषण देते हैं ताकि धु्रवीकरण आसानी से हो सके, और वोट हासिल करना आसान हो जाए। ये तो जनता को समझना है कि वे काम करने वाले प्रतिनिधि चुनना चाहते हैं कि जाति व धर्म के आधार पर ऐसे लोगों को वोट देंगे जो भारतीयों को जाति व धर्म में बांटते हैं।

कब करेंगे सब तरक्की
आजादी के छह दशक तक राजनीति दलों का हर चुनाव में एक ही नारा था, अशिक्षा, गरीबी व बेरोजगारी से निजात दिलाना। उस समय राजनीतिक दल इसी नाम पर वोट मांगती थी। भारत धीरे-धीरे विकास कर रहा था, ये गति धीमी थी, वहीं विश्व के अनेक देश तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहे थे लेकिन भारत के शहर विकास कर रहे थे, गांवों हालत बदतर थी। जाहिर है भारत को जतिप्रथा, कुप्रथा व दकियानूसी विचारों से भी लड़ना था। यह चुनौती थी कि पिछड़ों, वंचितों व दलितों को समाज की मुख्यधारा में बिना शिक्षा के कैसे जोड़ा जा सकता है। लेकिन जिस तरह से विभिन्न संसाधनों और ऊंचे पदों पर ऊंची जातियों का वर्चस्व था, जिन्होंने दलितों के साथ भेदभाव किया, उन्हें आगे बढ़ने से रोका गया था। ऐसे में समाज की मुख्यधारा से कट गई जातियों ने राजनीति में नेतृत्व करने के लिए आगे आए ताकि वे अपनी जाति व समाज के विकास के लिए सरकार का हिस्सा बन सके। लेकिन सत्ता के लालच में हर बार सत्ता में काबिज रहने की ख्वाहिश के लिए ऐसे नेताओं ने अपने दलित, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों के भलाई के लिए काम करने से ज्यादा अपनी कुर्सी को दोबारा पाने के लिए वोट बैंक को जाति व धर्म में बांट दिया। इसीलिए इन जाति वर्ग से वह सुझारू व्यक्ति राजनीति में नहीं आ पाता है क्योंकि राजनीति में परिवारवाद छाया हुआ है। नए लोग राजनीति में  कदम नहीं रखते हैं, और जो भी पाकसाफ नया चेहरा उतरता है, वह विधानसभा या संसद तक पहुंच नहीं पाता क्योंकि वे जातिवाद व धर्म के आधार पर राजनीति नहीं करता है।
दलित प्रेम है बस दिखावा 
उत्तर प्रदेश में चुनाव का समय जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है। दलितो व अल्पसंख्यकों के नाम पर राजनीति खूब हो रही है। अब विकास के मुद्दे गर्त में जा रहे हैं, वहीं सभी दल दलितों व अल्पसंख्यकों के पक्षधर वाली राजनीतिक पर्टियां बताने में गुरेज नहीं कर रही हैं। लेकिन अगर इस सच्चाई को जानने के लिए आप आंकड़ों पर नजर डाले तो बता दें कि दलित व पिछड़ों को संविधान के तहत दिया जाने वाला आरक्षण और लगभग पांच लाख योजनाओं के बाद भी उनका पर्याप्त विकास नहीं हो पा रहा है। हिंदू समाज में 64 प्रतिशत दलित हैं लेकिन सच्चाई है कि उन्हें आज भी मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता है। 54 प्रतिशत दलित बच्चे आज भी कुपोषित हैं। 45 प्रतिशत दलित लिखना पढ़ना नहीं जानते हैं, लगभग 45 प्रतिशत दलितों के गांवों में जमीन नहीं है। 27 प्रतिशत दलित महिलाओं के पास स्वास्थ सुविधा उपलब्ध नहीं है। इतनी दयनीय स्थिति के बाद भी दलितों पर केवल राजनीति हो रही है। दलितों का नेतृत्व करने वाले सत्ता का सुख चाहते हैं लेकिन दलितों की बदहाली के लिए जमीनी स्तर ठोस कदम उठाने में असफल रहे हैं। वहीं दलितों को वोट बैंक समझने वाली पार्टियां दलितों पर राजनीति करती हैं लेकिन मौका आने पर वे दलितों को टिकट बांटने में कोताही बरतती हैं। खुद को दलित रहनूमा बताने के लिए बयानबाजी, दलित प्रेम का उनका दिखावा खबरों में बने रहने तक है, ताकि दलित समुदाय भावना में आकर उन्हें वोट दे दे। जब तक दलित समुदाय से वास्तविक भागीदारी सामने नहीं आएगी तब तक दलितों के नाम अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा को पंख देने के लिए दलित नेता दलितों के लिए विकास से समझौता करते नजर आएंगे।
दलित समुदाय के लोगों को तरह तरह के अत्याचार सहने पड़ते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानि एनसीआरबी के पिछले पांच साल के आंकड़े बताते हैं कि दलितों के खिलाफ अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं। केंद्र में या राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, दलित उत्पीड़न के मामलों में कोई खास अंतर नहीं पड़ता है। देश के कई जगह मामूली सी गलती पर दलितों को नंगा कर घुमाया जाता है या कभी उनका सिर मुंडवा दिया जाता है। मामूली सी बात पर दलित-कमजोर वर्ग के लोगों को पेड़ से बांधकर लटका दिए जाने की घटनाएं भी होती हैं। हालांकि दलितों के उत्पीड़न के मामले में 2012 में मामूली कमी आयी, वहीं  एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट जो साल 2014 की है, उसमें दलितों के खिलाफ उत्पीड़न के मामले में 2013 के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है। वहीं 2014 में 47,064 अपराध हुए हैं जबकि 2013 में यह आंकड़ा 39,408 था। साल 2012 में दलितों के खिलाफ अपराध के 33,655 मामले सामने आए थे, जबकि इसके एक साल पहले यानि 2011 में हुए 33,719 से थोड़े कम थे। पांच साल पहले 2010 में यह आंकड़ा 33,712 था। अपराधों की गंभीरता को देखें तो इस दौरान हर दिन दो दलितों की हत्या हुई और हर दिन औसतन छह दलित महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं। दलित उत्पीड़न के इन आंकडों को देखकर नहीं लगता कि हम सभ्य समाज का हिस्सा हैं। जबकि भारत में अनसूचित जाति एक्ट जैसे कड़े कानून होने के बावजूद भी दलितों पर अत्याचार कम नहीं हो रहे हैं। रिसर्च से ये बात भी सामने आई है कि कानून बना देने से दलितों के प्रति अत्याचार कम नहीं होंगे, जब तक सामाजिक चेतना न हो। दलितों व वंचितों पर अपराध की बढ़ती घटना हजारों साल की एक वर्ग को दबाने की मानसिकता है। दलित इसी देश के नागरिक हैं, वे हमारे भाई हैं, इस तरह अपने लोगों के प्रति भेदभाव के कारण क्या हम सच में वास्तविक तरक्की कर रहे हैं। दलितों पर किसी भी तरह के भेदभाव के खिलाफ समाज के हर जाति व धर्म के लोगों को एक होना चाहिए, तकि उन लोगों को मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके जो दलितों पर अत्याचार करते हैं। यानी एक ऐसी क्रांति जहां पर दलितों व वंचितों को सम्मान से जीने का हक मिल सके।

अभिषेक कांत पाण्डेय

हिंदी भाषा में परास्नातक, पत्रकारिता में परास्नातक, शिक्षा में स्नातक, डबल बीए (हिंदी संस्कृत राजनीति विज्ञान दर्शनशास्त्र प्राचीन इतिहास एवं अर्थशास्त्र में) । सम्मानित पत्र—पत्रिकाओं में पत्रकारिता का अनुभव एवं राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक विषयों पर लेखन कार्य। कविता, कहानी व समीक्षा लेखन। वर्तमान में न्यू इंडिया प्रहर मैग्जीन में समाचार संपादक।

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