भीमा-कोरेगांव में जातिवादी संघर्ष
महाराष्ट्र के भीमा-कोरे गांव में जातिवाद के नाम पर जो संघर्ष हुआ वह किसी भी मायने में सही नहीं है। आज भारत में जातिवाद के नाम पर लोगों को भड़काया जा रहा हैं। इस प्रकार की घटनायें भारत के आपसी भाई-चारे प्रेम, सौहार्द को बिगाड़ती हैं। भीमा-कोरेगांव में आयोजित विजय दिवस विगत 100 वर्षो से मनाया जाता हैं। माना जाता है कि भीमा नदी के किनारे 1 जनवरी 1818 को अंग्रेजी सेना और पेशवाओं के बीच युद्ध हुआ था। अंग्रेज-मराठा युद्ध में पेशवाओं की पराजय तथा अंग्रेजो की जीत हुई। युद्ध की खास बात यह थी कि अंग्रेजी सेना का साथ महार जाति के लोगों ने दिया था, जिसमें 400 महार (सैनिक) मारे गये थे। अंग्रेजों ने उनकी याद में 1818 में उस स्थल पर ‘‘विजय स्तम्भ’’ बनवाया था। विजय स्तम्भ पर अंग्रेज-पेशवा युद्ध में मारे गये सैनिकों के नाम उत्कीर्ण हैं। तब से लेकर आज तक दलित वर्ग के लोग उस स्थल पर विजय दिवस का उत्सव मनाते है। डाॅ0 अम्बेडकर ने भी सन् 1927 में इस स्थल का भ्रमण किया था। उनके भ्रमण के कारण यह स्थान दलितों के लिए एक तीर्थ स्थान जैसा हो गया। डाॅ0 अम्बेडकर द्वारा इस घटना को दलित शौर्य के प्रतीक की संज्ञा देने पर उस समय असहज स्थिति पैदा हो गयी थी। लेकिन तब जातीवाद के नाम पर रोटियाँ सेकने वाले नेताओं की एक नही चली तथा यह मामला शाँत हो गया था। भारत में दलित विमर्श के जनक ज्योतिबा फूले ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विद्रोह को असफल हो जाने पर पुणे में सार्वजनिक रूप से महार सैनिकों का सम्मान किया था। जिन्होने अंग्रेजों की सेना का साथ देकर ईस्ट इंडिया कम्पनी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तत्कालीन वायसराय को पत्र लिखकर ज्योतिबा फूले ने अंग्रेजों का आभार जताया था। जिसमें उन्होने तर्क दियाथा कि अंग्र्रेजों ने दलितों को ब्राह्मणवाद से बचाया है। सन् 1818 का दलित आन्दोलन डाॅ0 अम्बेडकर से ही पूर्ण होता है। डाॅ0 अम्बेडकर पर भी यह आरोप लगा था कि वे अंग्रेजों की बात ज्यादा मानते हैं। उस आरोप का आधार उन्होने डाॅ0 अम्बेडकर के लेखन और भाषणों को बनाया था। जिससे आगे चलकर यह विचार उपजा कि अंग्रेज देरी से आये और जल्दी चले गये।
इन लोगों पर आरोप शायद इसलिये भी लगे हो कि ये दलितों के लिये काम कर रहे थें। कमजोर वर्ग उसी का सहारा ढूंढता है, जहां उसे आश्रय मिलने की आशा होती हैं। उसके लिये भी हमारी समाज व्यवस्था दोषी थी जिसने मानव को कीड़े-मकोड़े से बदतर जीवन जीने को मजबूर कर दिया था। यही ज्वाला इन घटनाओं के रूप में समाज के सामने आई थी। हमें दर्द की इस घटिया व्यवस्था को आमूल चूल बदलने की जरूरत है। इस सब के बावजूद देश के स्वतंत्रता संग्राम में सभी ने प्राणों की आहुति देकर देश को आजाद कराया। इन बातों पर चर्चा करने का मात्र आशय यह है कि उस समय दलित वर्ग अत्याचारों से त्रस्त था वह मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। उस समय के समाज सुधारकों ने दलितों के लिए कार्य किये जिससे उनकी आर्थिक सामाजिक शैक्षिक स्थिति में सुधार हुआ। विजय दिवस, ज्योतिबा फूले, अंबेडकर के विचारों को हिन्दू समाज अपनाता रहा है। उसी का परिणाम है कि आज तक कार्यक्रम होते रहे तथा अंबेडकर, ज्योतिबा फूले को भारत पूजता रहा है। मात्र दलितों पर अत्याचार की चर्चा करके अन्य दबे कुचले, पिछड़े वर्ग को नजर अंदाज करना है जो आज भी दो जून की रोटी के लिए तरसता है।
दलितों के नाम पर संविधान की दुहाई देकर राजनीति करने वालों को समझना चाहिए संविधान में दलित शब्द का प्रयोग नहीं है। दलित का अर्थ है पीड़ित शोषित, दबा हुआ, खिन्न, उदास, टुकड़ा, खंडित, रौंदा हुआ, जिसे अस्पृश्य समझा जाता हो इस प्रकार की सैकड़ों जातियों को अनुसूचित जाति में रखा गया है। संविधान में अनुसूचित जाति शब्द का प्रयोग है न कि दलित शब्द का। दलित तो किसी भी वर्ग, समाज, जाति में हो सकता है। आज दलित शब्द कुछ विशेष जातियों को इंगित करता है। जो कि अन्य जातियों के खिलाफ अन्याय है। मीडिया तथा राजनेताओं को दलित-हिन्दू संघर्ष शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए। दलित-हिन्दू शब्द के प्रयोग से आप दलितों को हिन्दू धर्म से अलग कर देते हैं। जबकि दलित वर्ग हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है। भारत में दलित 16.6 प्रतिशत यानि 20.14 करोड़, बंगलादेश में 65 लाख, नेपाल में 50 लाख, श्रीलंका में 50 लाख, पाकिस्तान में 30 लाख, ब्रिटेन में 5 लाख है। ये विभिन्न जातियों में विभाजित है। अनुसूचित जातियों के सम्मान जनक जीवन के लिए संविधान में अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता के उन्मूलन का प्रावधान किया गया है।
आज जातिवाद के नाम पर समाज को बाटकर राजनैतिक रोटियां सेकी जा रही है। जाति का अर्थ है अपने समान सन्तान को उत्पन्न करना ‘‘समान प्रसवात्मिका जातिः’’ मनुष्य से मनुष्य उत्पन्न होता है दलित, जाट-गुर्जर या ठाकुर नहीं उसे तो हमारा समाज बांटता है। उसी का विकराल रूप संघर्ष के रूप में हमारे सामने है। यदि जातिवाद को खत्म करना है वैदिक मान्यताओं को अपनाना होगा। वर्ण व्यवस्था को अपना होगा कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था जातिवाद से ठीक विपरीत व्यवस्था है। जातिवाद विशुद्ध रूप से जन्म पर आधारित एक ऐसा सड़ा-गला और दमघोटूवाद है जिसका कोई सामाजिक आर्थिक औचित्य नहीं है। इसके विपरीत वर्ण व्यवस्था समाज के प्रत्येक व्यक्ति के गुण कर्म एवं स्वभाव पर आधारित एक वैज्ञानिक ढंग की श्रम विभाजन प्रणाली है। जातिवाद के झगड़ो से निकलकर समाज को सुदृढ़ एवं सभ्य समाज बनाने का प्रयास करना चाहिए अनुसूचित जाति (दलित) हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग था, है और रहेगा उसे समाज की कोई विघ्टनकारी शक्तियां नहीं तोड़ सकती।
शिवाजी महाराज की सेना से लेकर संभा जी महाराज की अंतिम क्रियाक्रम तक करने वाला महार समाज वीरता, भक्ति, शक्ति की मिसाल है। उसकी गरीमा को कोई नहीं मिटा सकता। हिन्दुओं को आपस मे छूआछूत के भेद भाव को समाप्त करने की जरूरत है। नहीं तो समाज जातिवाद के नाम पर समाज को बांटने वाले इसी प्रकार समाज को बांटते रहेगें। समाज सुधारकों, विद्वानों, देशभक्तों को जाति में बांधकर उनका अपमान न करें। क्योंकि वह समस्त समाज के लिये कार्य करते हैं। वो जाति से उठकर देश के लिए कार्य करते हैं। उनका सही सम्मान तभी होगा जब हम समाज में एक समानता पैदा करें। जातिवाद को समाप्त कर राष्ट्रवाद को स्थापित करें। यदि जातिवाद को खत्म करना है तो वैदिक संस्कृति को अपनाना होगा उसके मूल्यों को धारण करके हम एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। जिसका शुभ संदेश है ‘‘वसुधेव कुटुम्बकम्’’ यह सारा संसार एक परिवार के समान है। उसी परम्परा का निर्वाह करने की आवश्यकता है। तभी भारत तरक्की के रास्ते पर चलकर प्रगति कर सकता है।
— सोमेन्द्र सिंह