धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

शिक्षा और नैतिकता पर वैदिक चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ में

आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत विषय की नितान्त आवश्यकता है। शिक्षा में नैतिकता के बिना मानवीय मूल्यों का ास दिन-प्रतिदिन दिखायी दे रहा है। शिक्षा का मात्र उद्देश्य रोजी रोटी तथा व्यवसाय प्राप्त करना ही न होकर बालक का सर्वांगीण विकास करना है। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक विकास से ही सर्वोन्नति सम्भव है। शिक्षा का उद्देश्य है – ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् विद्या वह है जो हमें सब प्रकार के दुःखों से विमुक्ति दिलवाए। इसलिए ऋग्वेद का ऋषि कहता है – ‘मनुर्भव’ मनुष्य बनो। मानवीय गुणों – प्रेम, दया, सहानुभूति, त्याग, सेवा परस्पर सहयोग भावना, उत्तमोत्तम् आचरण शिक्षा, विद्या इत्यादि शुभ श्रेष्ठ गुणों द्वारा ही मनुष्य का निर्माण सम्भव है। इसी के द्वारा समाज एवं राष्ट्र को भी मंगलमय बनाया जा सकता है।

शिक्षा का वैदिक आदर्श है- सहनाववतु सहनौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।

इस मन्त्र में शिक्षा के पाँच उद्देश्य बताये हैं- शारीरिक विकास, जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, सबका विकास, धर्म संस्कृति सभ्यता के प्रति उदात्त भावना, द्वेष भावना के स्थान पर गुरू शिष्य का आपसी सहयोग। इसी उद्देश्य को सामने रखकर शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान, भक्ति ओर निष्काम कर्म शिक्षा के मूल तत्व है। यम और नियम के द्वारा भी समानता व एकरूपता की प्राप्ति की जा सकती है। वेद के उदात्त विचारधारा द्वारा विश्वबन्धुत्व, विश्वशान्ति, समष्टिभावना, भद्रभावना, आशावाद, निर्भयता, श्रद्धा, सामंजस्य को प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षा का वैदिक नैतिक रूप इस वाक्य में दिग्दर्शित किया गया है – ‘‘मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद’’ जब तीन उत्तम माता-पिता और आचार्यगण होते हैं, तभी मनुष्य ज्ञानवान् बनता है। वैदिक वाड्.मय की उन्नति में राजा राममोहनराय द्वारा स्थापित ‘‘ब्राह्मसमाज’’ और स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित ‘‘आर्य समाज’’ ने विशेष सक्रिय कार्य किया है। ब्रह्मसमाज का ध्यान भारतीय-गौरव रक्षा के लिए उपनिषद्ों की ओर रहा है और आर्य समाज ने वैदिक साहित्य पर बल दिया। यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि आधुनिक समय मे वैदिक साहित्य एवं शिक्षा पर जो कुछ कार्य हुआ है उसमें आर्य समाज का स्थान अग्रगण्य है।

शिक्षा के ध्येय एवं उद्देश्य के विषय में विचार करते समय हम निःसन्देह यह कह सकते हैं कि अन्तःशक्तियों को समुचित रूप में विकसित कर देना ही शिक्षा का प्रथम एवं अन्तिम ध्येय है। इसी आदर्श को हृदयंगम कर वैदिक ऋषि अपनी शक्तियों के विकास के लिए परमात्मा से प्रातः सायं इस प्रकार से प्रार्थना किया करते थे-ईश्वर ! हमारी बुद्धि को सद्मार्ग में प्रेरित करो-‘‘धियो यो नः प्रचैदयात्’’ हे अग्निदेव ! हमें आप सद्मार्ग से विश्व में ले चलें, ले ही न चले, अपितु आप हमारे हृदयों से दुर्गुण एवं पाप भावनाओं को निकालकर निष्पाप तथा शुद्ध पवित्र बुद्धि प्रदान करें; इसके लिए हम पुनः आपकी प्रार्थना करते हैं –
अग्नेनय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानिविद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयष्ठान्तिं नमः उक्ति विधेम।।

वैदिक ऋषि पवित्र भावभूमि पर स्थित होकर पुनः बुद्धि को मेधावी बनाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है-
यां मेधां देवगणां पितरश्चोपासते
तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु।
इस प्रकार बुद्धि को मेधावी बनाने के लिए ही प्रार्थनाएं नहीं की जाती थीं, अपितु उस बुद्धि को पवित्र एवं कालुष्य रहित बनाने के लिए भी-
पुनन्तु मां देवजना पुनन्तु मनासाधियः
पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेद पुनीहि मा।।

इस प्रकार वैदिक शिक्षा का मूल आधार मानव की बुद्धि का परिष्कार कर सुपथ का दर्शन कराना था; वस्तुतः यही प्राचीन शिक्षा का ध्येय था। क्या आज की शिक्षा में कहीं भी इस प्रकार का पाठ्यक्रम निर्धारित है जो बुद्धि को मानवता के मार्ग का पथिक बना सके जिससे कि हम उच्च स्वर से आयु, प्राण, धन, तेज को प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करना न भूलें-
तेजोऽसि तेजोमयि धेहि
वीर्यमसि वीर्यमयि धेहि
बलमऽसिबलं मयि धेहि
सहोऽसि सहोमयि धेहि

प्राचीन काल में ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ के अनुसार विश्व की कल्याण कामना ही वैदिक संस्कृति का प्रयोजन था। उसकी सिद्धि के लिए ऐहिक एवं पारलौकिक उन्नति करते हुए ब्रह्म के स्वरूप में भारतीय निमग्न हो जाते थे। वह ब्रह्म तप से प्राप्त होता था- ‘ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते’, ‘तपसा चीयते ब्रह्म’ तथा तप की कसौटी के रूप में यम-नियमों का पालन करने के लिए एक निर्देश प्रत्येक विद्यार्थी को तो दिया जाता था; साथ ही मानव मात्र को इनका पालन करना आवश्यक था। यम के अन्तर्गत –
‘‘तत्राऽहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमः’’, तथा नियमों में ‘‘शौच सन्तोषस्तपः स्वाध्यायेश्वर प्राणिधानानि नियमाः’’ अर्थात् अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह तथा मन, वचन, कर्म में पवित्रता शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान। इन यम एवं नियमों की उपयोगिता, महत्व एवं अनिवार्यता के विषय में कुछ कहना उचित न होगा, वस्तुतः ये मानव को पूर्ण मानव बनाने के साधन थे। इनका आज के छात्र समाज में पूर्णतः अभाव-सा ही दृष्टिगोचर हो रहा है। जिस ब्रह्मचर्य का पालन कर देवताओं ने इच्छा मृत्यु प्राप्त की थी, उसका भी धवल यश वैदिक साहित्य में गाया गया है-
‘‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नतः
मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्।’’

चरित्र की भी प्रशंसा की गई है कि चरित्र से रहित मनुष्य मृतप्रायः ही है-
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः

इस प्रकार प्राचीन निर्देशों के अनुसार हम कह सकते हैं कि प्राचीन छात्र व्रती एवं तपस्वी बनकर शिक्षोपार्जन किया करते थे।
प्राचीन काल की शिक्षा में मूल श्रद्धा की भावना थी; किन्तु आज के छात्र समाज में उसका पूर्णतः अभाव है। वस्तुतः मानव जीवन की सफलता के लिए विभिन्न तत्वों में श्रद्धा का प्रधानतम स्वार्थ है। श्रद्धा से समस्त कार्य अनायास ही सम्पन्न हो जाते हैं। श्रद्धा की भावना अपने गुरुजनों को वश में करने का सर्व-सुलभ साधन है-
श्रद्धायाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः
श्रद्धा भगस्य मूर्धनि वचसावेदयामसि।

श्रद्धा भावना जब ऐश्वर्य तथा कल्याण की प्रदाता है तो क्या आज के छात्रों में श्रद्धा की भावना संचार होने पर गुरु प्रदत्त शिक्षा जीवनोपयोगी नहीं हो सकती है ? अवश्य हो सकती है। आज शिक्षा के क्षेत्र में फैली विश्रृंखलता के कारण छात्रों में श्रद्धा का अभाव है। वस्तुतः श्रद्धा ज्ञानार्जन का मूलतन्त्र है, जिस श्रद्धा की भावना ने नचिकेता में यम के मुख में जाकर प्रश्न करने के साहस का संचार किया था। ज्ञानार्जन करने में नचिकेता को समर्थ बनाया था। क्या वही श्रद्धा आज की शिक्षा में जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं करा सकती। संसार में श्रद्धाहीन मानव सदा से पद्दलित होते आये है। उनका सदा विनाश हो रहा है आज विनाश से बचने के लिए छात्र समाज को श्रद्धालु बनाने का उपाय करना चाहिए। लेकिन हम देखते क्या हैं आज का छात्र, माता, पिता एव गुरूजनों के प्रति पूर्णतः अवज्ञा की भावना को लिए सदैव तिरस्कृत-सा करता है। यही कारण है कि उन्हीं गुरूजनों से प्रदत्त शिक्षा छात्र के लिए अभिशाप बनकर दुःखदायी ही सिद्ध हो रही हैं। अतः छात्रों को तपानुष्ठान का आचरण का श्रद्धाशील बनाना चाहिए। वेद के शब्दों में वह व्रतपालन से ही सम्भव है –
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षामाप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणाश्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।
अर्थात् व्रत से दीक्षा, दीक्षा से दक्षिणा, दक्षिणा से श्रद्धा, श्रद्धा से सत्य। इस प्रकार क्रमशः मानव को सुपथ पर ले जाने के लिये यह एक पद्धति वेद में निर्दिष्ट है। इसका पालन कल्याण की कामना करने वाले के लिए आवश्यक है।

विद्या स्वयं ही दुष्टाचरण कर्ताओं से भयभीत रहती है अतः उनके पास जाकर भी उनका कल्याण न कर अहित साधन ही करती है। इस सम्बन्ध में निरुक्त के ये वचन दृष्टव्य हैं-
विद्या आचार्य से कहती है-हे आचार्य ! मेरी रक्षा करो, मैं तुम्हारी शरण हूं। ईष्र्यालु, कुटिल एवं दुराचारी को मेरा दान न करो-
विद्याह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेष्हमस्मि,
असूयकायनूजवेऽयताय न मा ब्रूया वीर्यमती यथा स्याम्।
पुनश्च-विद्या उन्हें भी फलीभूत नहीं होती है जो कि गुरुओं का आदर नहीं करते-
अध्यापिता ये गुरं नाद्रियन्ते विप्र वाचा मनसा कर्मणा
यथैव ते द गुरोर्भोजतीयास्तथैव तान्नभुनक्ति श्रुतंतत्।
विद्या पवित्र शुद्धाचरण कर्ता मेधावी ब्रह्मचारी को अपनी कृपा से अनुग्रहीत करती है-
यमेव विद्या शुचिमप्तमन्तं मेधाविनं ब्रह्मचर्योपसन्नम्।
यस्ते न द्रु ह्येत्कृतमच्चनाह तस्मै मा ब्रूया निधिपाय ब्रह्मन्निति निधि शेबधिरिति।।

भगवान् मनु का यह वचन भी दर्शनीय है-
उत्पादक ब्रह्म दात्रोर्गरीन्ब्रह्यदः पिताः।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्।।
उत्पादक पिता की अपेक्षा आचार्य अधिक महत्व का भागी होता है क्योंकि उत्पादक पिता ने तो केवल एक जन्म प्रदान किया है किन्तु इस भव सागर से संतरण करने के लिए आचार्य ही मानव का पूर्ण व पवित्र निर्माण करता है। योगदर्शन में पंचक्लेशों को अर्थात् दुःखों का वर्णन मिलता है जिनमें अविद्या का परिगणन सर्वप्रथम किया गया है-‘‘अविद्याऽष्मिता रागद्वेषाभिनिवेषा पचक्लेशा’’ वस्तुतः अविद्या मानव को पतन के गर्त में ले जाकर यथासम्भव दुःखों से पीड़ित करती है। अतः इन दुःखों से यदि मुक्ति प्राप्त करनी है तो ज्ञानार्जन करना चाहिए क्योंकि ‘‘ऋते ज्ञानान्न मुक्ति’’ ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र साधन शिक्षा सम्बन्धि भारतीय विचारधारा का अनुपालन ही है। क्योंकि विद्या पात्रापात्र का विचार कर ही अनुग्रह करती है।

अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षा का पूर्ण विकास राष्ट्र की संस्कृति के आधार पर ही हो सकता है क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में अपने देश के आदर्शो का वरदहस्त रहता है। जिस प्रकार एक पौधा अपने अनुकूल जलवायु पर एवं मिट्टी से पृथक् हो, अन्य भूमि पर विकसित नहीं हो सकता है उसी प्रकार किसी राष्ट्र की शिक्षा पद्धति अपनी संस्कृति की आधारशिला का परित्याग कर उन्नति नहीं कर सकती है। वैदिक काल की शिक्षा का पूर्ण विकास इसी पृष्ठभूमि पर हुआ है।

शिक्षा के आधुनिक सन्दर्भ में वैदिक शिक्षाकालीन सूत्रों की प्रासंगिकता आज और भी अधिक बढ़ जाती है। क्योंकि आज की शिक्षा प्रणाली में केवल मात्र जीविकोपार्जन की दृष्टि को ही महत्व दिया जाने लगा है। शिक्षा का यथार्थ उद्देश्य मानव को सर्वांगीण विकास की अवहेलना स्पष्ट परिलक्षित होती है। शिक्षा में नैतिकता का संपुट अवश्य दिया जाना चाहिए। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री डाॅ0 राधाकृष्णन् के अनुसार-भारतसहित सारे संसार के कष्टों का कारण यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति से न रहकर केवल मस्तिष्क के विकास से रह गया है, जिस शिक्षा में हृदय, मन और आत्मा की अवहेलना है उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता, इन शब्दों पर सभी शिक्षाशास्त्रियों को गम्भीरता से विचार करना चाहिए। प्रस्तुत विषय की प्रासंगिकता नितान्त अनिावर्य है। इस पर गम्भीरता से सभी शिक्षाशास्त्रियों को विचार-विमर्श करना चाहिए।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1. संस्कृत साहित्य का इतिहास – डा0 बलदेव उपाध्याय
2. वैदिक साहित्य का इतिहास – डा0 राजकिशोर सिंह
3. वैदिक वाग् ज्योति – शोधपत्रिका गुरूकुल कांगड़ी जुलाई-दिसम्बर 2016
4. प्रज्ञा शिक्षण शोध रचना – शोध पत्रिका, अमरोहा
5. संस्कृत साहित्य का इतिहास – डाॅ0 कपिलदेव द्विवेदी

सोमेन्द्र सिंह

सोमेन्द्र सिंह " रिसर्च स्काॅलर " दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली शास्त्री सदन ग्राम नित्यानन्दपुर, पोस्ट शाहजहांपुर, जिला मेरठ (उ.प्र.) मो : 9410816724 ईमेल : [email protected]