लेख– इसरो से देश की अन्य संस्थाओं को सीख लेने की जरूरत
जिस दौर में देश की अन्य संस्थाएं चरमरा रहीं हैं। तब इसरो अपनी बुलंदियों से देश की प्रतिष्ठा औऱ गौरव में चार चांद लगा रहा है। आज देश की नींव शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्थाएं धराशाई हो रहीं हैं। शिक्षा रोजगारपरक नहीं बन पा रहीं, स्वास्थ्य सुविधाओं का अकाल है, तो अगर इन समस्याओं के लिए बजट का रोना रोया जाता है, तो वह भी ठीक नहीं। इसरो ने 100 वा सैटेलाइट लांच करके जो यश और उपलब्धि देश को दिलाई है, वह इसलिए भी उल्लेखनीय है, क्योंकि इसरो ने विश्व में सबसे कम ख़र्च में सैटेलाइट लांच किया है। डॉ विक्रम साराभाई के नेतृत्व में जब इसरो ने 1969 में कार्य करना शुरू किया था, तब यह संगठन भी तकनीकी, संसाधनों औऱ बजट के मामले में तंग हाल था। उस समय रॉकेट को लांचिंग पैड तक ले जाने के लिए साइकिल औऱ बैलगाड़ी का उपयोग किया जाता था। बैलगाड़ी और साइकिल पर लादकर सैटेलाइट और रॉकेट को लांचिंग पैड तक लेने जाने की शुरू हुई यात्रा आज दुनिया भर में अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को लेकर लोहा मनवा रहा है। जब चीन जैसे समृद्धि देश मंगल ग्रह तक नहीं पहुँच पाया, उसके पहले इसरो की टीम ने अपनी लगन, मेहनत औऱ कर्तव्यपरायणता के बल पर मंगल ग्रह तक अंतरिक्ष यान भेजने में सफल रहा। वह भी प्रथम प्रयास में। तकनीकी पाबन्दियों के दौर में जो सिलसिला इसरो ने शुरू किया, वह एक अंतहीन कथा में आज तब्दील हो रहीं है। दुनिया का एकमात्र देश भारत है, जिसने पहले प्रयास में मंगल और चन्द्र को फ़तह किया है।
उपग्रह लांच करने की सबसे सस्ती तकनीक इसरो ने अगर विश्व परिदृश्य में हासिल कर रखी है, तो इसकी साख पर भी तनिक संदेह नहीं किया जा सकता। ऐसे में सवाल यहीं देश में अन्य वैज्ञानिक औऱ दूसरी तरीक़े की संस्थाएं है , वे क्यों इसरो जैसी सफ़लता अर्जित नहीं कर पा रहीं हैं? ऐसा मानते हैं, सफलता सिर्फ़ परिणाम नहीं होती, वह एक आदत भी होती है। इसरो के मंगल मिशन को संपन्न करने में हॉलीवुड में बनी फिल्म ग्रेविटी से भी कम ख़र्च करना पड़ा । वर्तमान ही नहीं बीते 58 वर्षों के इसरो की कार्यप्रणाली पर नज़र डालें, तो इसका एक सुंदर इतिहास देखने को मिलता है। इसरो ने 1990 में ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान को विकसित किया , जिसकी मदद से वर्ष 1993 में पहला उपग्रह भेजा गया। इसके बाद 2008 में चन्द्रयान की सफलता ने भारतीय सफ़लता का झंडा अंतरिक्ष में गाड़ दिया। इसरो नामक संस्था से देश की हर संस्थाओं को कुछ न कुछ सीखने की आवश्यकता है। जब देश की अन्य संस्थाएं जातिवादी, धर्मवादी, औऱ राजनीति की लमफ्टबाजी में उलझी हुई है, तब इसरो अपनी सफ़लता से विकसित देशों की नींद ग़ायब करने में लगी है। इसरो से देश की संस्थाओं को अपने कार्य के प्रति निष्ठा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी औऱ दृढ़ता सीखना होगा। आख़िर क्या कारण है, कि शिक्षा तंत्र में जंग लग गया है? क्यों सरकारी स्वास्थ्य तंत्र गरीबों की जिंदगी नहीं बचा पा रहीं है? कारण साफ़ है, सब राजनीति के दुष्चक्र में फंस गई हैं। पिछलग्गू राजनीति शिक्षा औऱ स्वास्थ्य तंत्र पर हावी है। जिसे दूर करना होगा, तभी इसरो जैसा नाम देश की अन्य संस्थाएं अर्जित कर सकती हैं।
isro has done a marvellous job .