ग़ज़ल
तेरी आँखों में अभी तक है अदावत बाकी ।
है तेरे पास बहुत आज भी तुहमत बाकी ।।
इस तरह घूर के देखो न मुझे आप यहाँ ।
आपकी दिल पेअभी तक है हुकूमत बाकी।।
तोड़ सकता हूँ मुहब्बत की ये दीवार मगर।
मेरे किरदार में शायद है शराफत बाकी ।।
ऐ मुहब्बत तेरे इल्जाम पे क्या क्या न सहा ।
बच गई कितनी अभी और फ़ज़ीहत बाकी ।।
मुस्कुरा कर वो गले मिल रहा है फिर मुझसे ।
कुछ तो होगी ही कोई खास ज़रूरत बाकी ।।
बात होती ही रही आपकी शब भर उनसे ।
रह गई कैसे भला और शिकायत बाकी ।।
वो मुलाकात पे बैठा है लगा कर पहरा ।
तेरे दरबार में कुछ रह गई रिश्वत बाकी ।।
कौन कहता है वो मासूम बहुत है यारों ।
उसकी फितरत में बला की हैशरारत बाकी।।
इश्क़ फरमाए भला कौन हिमाकत करके ।
आप रखते हैं कहाँ गैर की इज़्ज़त बाकी।।
मेरे साकी तू अभी और चला दौर यहाँ ।
पास मेरे है अभी और भी दौलत बाकी ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी