बाल कविता

ढीट भालू

 

बोला भालू शेर से – “शेरू मेरे यार”।
काफी दिन हैं हो गये, चलो आज बाजार॥
चलो आज बाजार, घूम-फिर कर घर आयें,
पिक्चर-विक्चर देख, समोसे-लड्डू खायें।
सुना बिका कल खूब, बर्फ का मीठा गोला,
हम भी तो लें स्वाद, ठुमकता भालू बोला॥

सुनकर शेरू क्रोध में झपटा – “सुन रे ढीट”।
भालू के बच्चे तुझे, अब मैं दूँगा पीट॥
अब मैं दूँगा पीट, मुझे तू मूर्ख बनाता,
जब जाता बाजार, जेब मेरी कटवाता।
खाता तू तरमाल, चुकाता मैं चुन-चुनकर,
भागा सिर पर पैर रखे भालू यह सुनकर॥

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन