भाषा-साहित्य

दोहा है रस-खान

दोहा विश्व साहित्य का सर्वाधिक पुरातन और प्रभावी छंद है​। यह अतिशयोक्ति नहीं सत्य है कि दोहा ने संभावित युध्दों को रोका है, संकटग्रस्त नारी की अस्मिता बचाई है, पथ-भटके जनों को राह दिखाई है, प्रेमियों को मिलाया है, दरिद्र पिता को बेटी ब्याहने की सामर्थ्य प्रदान की है और शत्रु के कैद में बंद सम्राट को अपने दुश्मन से बदला लेने में समर्थ बनाया है। यही नहीं दोहा में मनुष्य के हर भाव को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य भी है।हिंदी ही नहीं भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओँ में दोहा छंद सर्वाधिक लोकप्रिय रहा है। देश के सभी प्रमुख कवियों ने दोहा छंद में रचनाएँ की हैं। हिंदी साहित्य में दस रस मान्य हैं।  दोहा इन दसों रसों में भावाभिव्यक्ति करने में समर्थ है। आइए, दोहे की इस सामर्थ्य से परिचित हों-
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श्रृंगार रस

रसराज श्रृंगार रसराज अत्यंत व्यापक है। श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग + आर। ‘श्रृंग’ का अर्थ है “कामोद्रेक”, ‘आर’ का अर्थ है वृद्धि प्राप्ति। श्रृंगार का अर्थ है कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव प्रेम है। पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका द्वारा प्रेम की अभिव्यंजना श्रृंगार रस की विषय-वस्तु है। प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहा है। परकीया प्रिया-चित्रण को रस नहीं रसाभास कहा गया है किंतु ‘लिव इन’ के इस काल में यह मान्यता अनुपयुक्त प्रतीत होती है। श्रृंगार रस में अश्लीलता का समावेश न होने दें। श्रृंगार रस के २ भेद संयोग और वियोग हैं। प्रेम जीवन के संघर्षों में खेलता है, कष्टों में पलता है, प्रिय के प्रति कल्याण-भाव रखकर खुद कष्ट सहता है। ऐसा प्रेम ही उदात्त श्रृंगार रस का विषय बनता है।
संयोग श्रृंगार:
नायक-नायिका के मिलन, मिलन की कल्पना आदि का शब्द-चित्रण संयोग श्रृंगार का मुख्य विषय है।
उदाहरण:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर।
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर। – अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
नयन नयन से मिल झुके, उठे मिले बेचैन।
नयन नयन में बस गए, किंचित मिले न चैन।। – संजीव
वियोग श्रृंगार:
नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो तो वियोग श्रृंगार होता है। यह अलगाव स्थाई भी हो सकता है, अस्थायी भी। कभी मिले बिना भी विरह हो सकता है, मिल चुकने के बाद भी हो सकता है। विरह व्यथा दोनों और भी हो सकती है, एक तरफा भी। प्राचीन काव्य शास्त्र ने वियोग के चार भाग किए हैं :-
१. पूर्व राग पहले का आकर्षण
२. मान रूठना
३. प्रवास छोड़कर जाना
४. करुण विप्रलंभ मरने से पूर्व की करुणा।
उदाहरण:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल। ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल।। – चंद्रसेन “विराट”, चुटकी चुटकी चाँदनी
मन करता चुप याद नित, नयन बहाते नीर।
पल-पल विकल गुहरातीं, सिय ‘आओ रघुवीर’।। – संजीव
हास्य रस:
हास्य रस का स्थाई भाव ‘हास्य ‘है। साहित्य में हास्य रस का निरूपण कठिन होता है,थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक बनकर रह जाता है । हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए। हास्य और व्यंग्य में अंतर है। दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है। हास्य खिलखिलाता है, व्यंग्य चुभकर सोचने पर विवश करता है।
उदाहरण:
अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज।
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज।। – काका हाथरसी
‘ममी-डैड’ माँ-बाप को, कहें उठाकर शीश।
बने लँगूरा कूदते, हँसते देख कपीश।। – संजीव
व्यंग्यः
उदाहरण:
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच। ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच।। – जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
‘फ्रीडमता’ ‘लेडियों’ को, मिले दे रहे तर्क।
‘कार्य’ करें तो शर्म है, गर्व करें यदि ‘वर्क’।। – संजीव
करुण रस:
भवभूति: ‘एकोरसः करुण’ अर्थात करूण रस एक मात्र रस है। करुण रस के दो भेद स्वनिष्ठ व परनिष्ठ हैं।
उदाहरण:
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट। ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट।। – डॉ. अनंतराम मिश्र “अनंत”, उग आयी फिर दूब
चीर द्रौपदी का खिंचा, विदुर रो रहे मौन।
भीग रहा है अंगरखा, धीर धराए कौन?। – संजीव
रौद्र रस:
इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।
उदाहरण:
आगि आँच सहना सुगम, सुगम खडग की धार।
नेह निबाहन एक रस, महा कठिन ब्यवहार।। -कबीर
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश। ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।। – संजीव
वीर रस:
स्थाई भाव उत्साह काव्य-वर्णित विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से रस अवस्था में आस्वाद योग्य बनकर वीर रस कहलाता है । इसकी मुख्य चार प्रवृत्तियाँ हैं।
उदाहरण:
१.दयावीर: जहाँ दुखी-पीड़ित जन की सहायता का भाव हो।
देख सुदामा दीन को, दुखी द्वारकानाथ।
गंगा-यमुना बह रहीं, सिसकें पकड़े हाथ।। -संजीव
२. दानवीर : इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता होना अनिवार्य है।
उदाहरण:
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घटो, जो भृगु मारी लात।। – रहीम
राणा थे निरुपाय झट, उठकर भामाशाह।
चरणों में धन रख कहें, नाथ! न भरिए आह।। – संजीव
३. धर्मवीर : इसके स्थाई भाव में धर्म का ज्ञान प्राप्त करना या धर्म-पालन करना प्रमुख है।
उदाहरण:
माया दुःख का मूल है, समझे राजकुमार।
वरण किया संन्यास तज, प्रिया पुत्र घर-द्वार।। – संजीव
4 युद्धवीर : काव्य व लोक में युद्धवीर की प्रतिष्ठा होती है। इसका स्थाई भाव ‘शत्रुनाशक उत्साह’ है।
उदाहरण:
रणभेरी जब जब बजे, जगे युद्ध संगीत। ‌
कण कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत।। – डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा “यायावर”, आँसू का अनुवाद
धवल बर्फ हो गया था, वीर-रक्त से लाल।
झुका न भारत जननि का, लेकिन पल भर भाल।। -संजीव
भयानकः
विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के प्रयोग से जब भय उत्पन्न या प्रकट होकर रस में परिणत हो तब भयानक रस होता है। भय केवल मनुष्य में नहीं, समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।
उदाहरण:
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश। ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश।। – आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
धांय-धांय गोले चले, टैंक हो गए ध्वस्त।
पाकिस्तानी सूर्य झट, सहम हो गया अस्त।। -संजीव
वीभत्स रस:
घृणित वस्तुओं को देख, सुन जुगुप्सा नामक स्थाई भाव विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व हो वीभत्स रस में परिणत हो जाता है। इसकी विशेषता तीव्रता से प्रभावित करना है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार वीभत्स रस का स्थाई भाव जुगुप्सा है। इसके आलंबन दुर्गंध, मांस-रक्त है, इनमें कीड़े पड़ना उद्दीपन, मोह आवेग व्याधि ,मरण आदि व्यभिचारी भाव है, अनुभाव की कोई सीमा नहीं है। वाचित अनुभाव के रूप में छिँछी की ध्वनि, अपशब्द, निंदा करना आदि, कायिक अनुभावों में नाक-भौं चढ़ाना , थूकना, आँखें बंद करना, कान पर हाथ रखना, ठोकर मारना आदि हैं।
उदाहरण:
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। ‌
हा, जनता का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।। – संजीव
अद्भुत रस:
अद्भुत रस के स्थाई भाव विस्मय में मानव की आदिम वृत्ति खेल-तमाशे या कला-कौशल से उत्पन्न विस्मय उदात्त भाव है। ऐसी शक्तियां और व्यंजना जिसमें चमत्कार प्रधान हो वह अद्भुत रस से संबंधित है। अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार कोके क्रिया-कलापों के आलंबन से प्रकट होता है। उनके अद्भुत व्यापार, घटनाएँ, परिस्थितियाँ आदि उद्दीपन बनती हैं। आँखें खुली रह जाना, एकटक देखना प्रसन्नता, रोमांच, कंपन, स्वेद आदि अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं। उत्सुकता, जिज्ञासा, आवेग, भ्रम, हर्ष, मति, गर्व, जड़ता, धैर्य, आशंका, चिंता आदि संचारी भाव धारणकर अद्भुत रस में परिणत हो जाता है।
उदाहरण:
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ।
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार।। -डॉ. उदयभानु तिवारी “मधुकर”, श्री गीता मानस
पल में प्रगटे सामने, पल में होता लुप्त।
अट्टहास करता असुर, लखन पड़े चित सुप्त।। – संजीव
शांत रस:
शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव व वैराग्य से होती है। विभाव, अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणित हो जाता है। आनंदवर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव कहा है। वैराग्यजनित आध्यात्मिक भाव शांत रस का विषय है संसार की अवस्था मृत्यु-जरा आदि इसके आलंबन हैं। जीवन की अनित्यता का अनुभाव, सत्संग-धार्मिक ग्रंथ पठन-श्रवण आदि उद्दीपन विभाव, और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव हैं। शांत रस के संचारी में ग्लानि, घृणा ,हर्ष , स्मृति ,संयोग ,विश्वास, आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है।
उदाहरण:
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान। ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान।। – स्व. डॉ. श्यामानंद सरस्वती “रौशन”, होते ही अंतर्मुखी
कल तक था अनुराग पर, उपजा आज विराग।
चीवर पहने चल दिया, भिक्षुक माया त्याग।। – संजीव
वात्सल्य रस:
वात्सल्य रस के प्रतिष्ठा विश्वनाथ ने की। सूर, तुलसी आदि के काव्य में वात्सल्य भाव के सुंदर विवेचन पश्चात इसे रस स्वीकार कर लिया गया। वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सलता है। बच्चों की तोतली बोली, उनकी किलकारियाँ, लीलाएँ उद्दीपन है। माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना, आनंदित होना, हँसना, उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं। आवेग, तीव्रता, जड़ता, रोमांच, स्वेद आदि संचारी भाव हैं।वात्सल्य रस के दो भेद हैं।
१ संयोग वात्सल्य
उदाहरण:
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। ‌
पिला रही पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।। – संजीव
२ वियोग वात्सल्य
उदाहरण:
चपल छिपा कह खोज ले, मैया करें प्रतीति।
लाल कंस को मारकर, बना रहा नव रीति।। – संजीव
भक्ति रस:
संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की सत्ता स्वतंत्र रूप से नहीं है। मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया। इस रस का संबंध मानव उच्च नैतिक आध्यात्मिकता से है।इसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है। भगवान के प्रति समर्पण, कथा श्रवण, दया आदि उद्दीपन विभाव है। अनुभाव के रूप में सेवा, अर्चना, कीर्तन, वंदना, गुणगान, प्रशंसा आदि हैं। अनेक कायिक, वाचिक, स्वेद आदि अनुभाव हैं। संचारी रूप में हर्ष, आशा, गर्व, स्तुति, धैर्य, संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैं। इसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है |
उदाहरण:
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड। ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड।। – भानुदत्त त्रिपाठी “मधुरेश”, दोहा कुंज
चित्र गुप्त है नाथ का, सभी नाथ के चित्र।
हैं अनाथ के नाथ भी, दीन जनों के मित्र।। -संजीव
दोहा छंद के २३ प्रकार हैं। दोहा के रचना-विधान और प्रकारों को जानना रुचिकर है। दोहा छंद-प्रासाद में प्रवेश की कुंजी है। दोहा के चरणों को पलटने से सोरठा और रोला, दोहा और रोला को मिलाने से कुण्डलिया, दोहा की मात्राओं को घटा-बढ़ा कर चौपाई, आल्हा, दोही आदि छंद रचे जा सकते हैं।
संजीव वर्मा ‘सलिल’

संजीव वर्मा 'सलिल'

Sanjiv verma 'Salil', 9425183244 salil.sanjiv@gmail.com http://divyanarmada.blogspot.in facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'