सामाजिक

लेख– सिंचाई की वैकल्पिक व्यवस्था आज की जरुरत

देश में सियासी पारा भले लगातार बढ़ रहा। पर मौसम विभाग का मानसून को लेकर पूर्वानुमान राजनीतिक तपिश से राहत देने वाला दिख रहा है। भले ही मौसम विभाग की पूर्व भविष्यवाणी पर पूर्ण विश्वास न किया जा सकें। फ़िर भी शुरुआती अनुमान के मुताबिक दक्षिण-पश्चिम मानसून सामान्य रहने का आंकलन किया गया है। जिसके मुताबिक देशभर में लगभग 97 फ़ीसद वर्षा होने की सम्भावना है। काफ़ी समय से हताश- परेशान कृषि क्षेत्र से लगे समुदाय के लिए यह तसल्ली देने वाली बात है। आज़तक यह देश का दुर्भाग्य ही है, कि मौसम की बेरुखी, सरकार की उपेक्षा और फसलों की बर्बादी की वजह से बीते कुछ वर्षों में किसान कर्ज़ के बोझ तले दबते गए। और मौत को गले लगाते रहें। उत्तर से दक्षिण तक के किसान जंतर-मंतर पर पहुँचते हैं। पूर्व से पश्चिम के किसान उद्देलित और आंदोलित हैं। पर किसानों और उनके परिजनों की दिशा और दशा नहीं बदल रहीं। तो उसके जिम्मेदारी नीति-नियन्ता ही हैं। जो सिर्फ़ कृषि को लाभ का धंधा बनाने की बात करते हैं। पर लाभ का धंधा किसानी बनेगी कैसे। यह स्थिति स्पष्ट नहीं होती।

आज़ादी के बाद भी अगर हमारे समाज का अन्नदाता परम्परागत कृषि करने को मजबूर है। साथ में सिंचाई के लिए वह मानसून पर निर्भर है। तो शायद यहीं कह सकते हैं, कि रहनुमाई व्यवस्था ने किसानों को अपने वोटबैंक से कुछ ज़्यादा आज तक समझा नहीं। वरना कृषि क्षेत्र में लगे लोगों की स्थिति भी सुदृढ़ होती। किसानों की आय दोगुना करने की कार्ययोजना सरकारें बना रहीं, लेकिन जब उपज का सही मूल्य ही नहीं मिल रहा। कहीं टमाटर के उचित दाम किसानों को नहीं मिल रहें, तो कहीं प्याज़ कौड़ी के दाम में किसान बेचने को विवश और लाचार है। ऐसे में किसानों की सामाजिक दिशा और दशा सुदृढ़ और बेहतर कैसे हो सकती है। ऐसे में अगर आज़ादी के सत्तर साल बाद ग़रीब, मजदूर और किसान यही नारा, यहीं नीति है। यहीं नियम और इन्हीं का जयकारा है। सुपर पॉवर के होड़ में मुँह चिढ़ाती भुखमरी देश के भीतर व्याप्त है। देश में 19 करोड़ 40 लाख भूखे हैं। रोजाना 3000 बच्चों की भूख से मौत होती है। तो यह सहज कहा जा सकता है। इन बच्चों की मौतों में एक बड़ी संख्या में मौत ग़रीब-किसान के बच्चों की ही देश में होती है। आने वाले मानसून के दौरान सामान्य बारिश और खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि का अनुमान किसानों के लिए अच्छी ख़बर तो हो सकती है। पर अधिक उत्पादन भी किसानों के हक में जब नहीं जाता। फ़िर समस्याएं विकट मामूल पड़ती हैं। आज के दौर में भले ही हम तकनीक के क्षेत्र में उन्नति कर लिए हो। पर शायद यह तकनीक कृषि क्षेत्र को व्यापक फ़ायदा अभी तक दे नहीं पाई है। ऐसा इसलिए कि हमारा किसान इतना सक्षम नहीं, कि वह उन्नत मशीनों का उपयोग कृषि क्षेत्र में कर सकें। साथ में पिछले तीन वर्षों के दरमियान मौसम विभाग की भविष्यवाणी कि सामान्य बारिश होगी। वह भी लगभग 40 फ़ीसद जिलों में ही सटीक साबित हुआ।

वरना कहीं जलजला और कहीं सूखा ही रहा। यहां पर एक बात ओर कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगा, क्योंकि हमारे देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि राजनीति भी मानसून से प्रभावित होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि कृषि का देश की जीडीपी में हिस्सेदारी 15 फ़ीसद है, तो वहीं आज तत्कालीन दौर में देश के लगभग 67 फ़ीसद लोग खेती से जुड़े हुए हैं। आज के दौर में घोर बिडम्बना की बात यह भी है, जिस कृषि उत्पाद के बलबूते देश समृद्ध औऱ विकसित बनने की ओर बढ़ रहा। उसी को उत्पादित करने वाला किसान दो वक़्त की रोटी को मोहताज होता है। देश में किसानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के पिछड़ेपन के कारक देखें जाएं, तो पहला कारण उन्नत कृषि तकनीक का अभाव होना। दूसरा कृषि क्षेत्र का सिंचाई के लिए मानसून पर टकटकी लगाकर बैठना। तीसरा कारण फसलों की बुवाई में लंबे समय तक बदलाव का न होना। चौथा उपज का सही मूल्य न मिलना, और पांचवा और सबसे बड़ा कारण रहनुमाई नीतियों का कृषि क्षेत्र के प्रति कमज़ोर और दिशाहीन होना है। देश को आज़ाद हुए काफ़ी लम्बा अरसा बीत गया, पर आज भी देश में जल संसाधन के टिकाऊ प्रबन्धन का अभाव है। आज भी देश में खेती का लगभग 60 फीसदी रकबा मानसून पर निर्भर है। बजट 2018-19 में किसानों को उपज के लागत मूल्य का डेढ़ गुना दाम दिलवाने की बात की गई है। जो स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुरूप नहीं है।

ऐसे में एक बार पुनः इस वर्ष मानसून का सामान्य होने का संकेत कृषि क्षेत्र से ज़ुड़े लोगों के लिए शुभ संकेत है। लेकिन जिस देश में लगभग 67 फ़ीसद आबादी आज़ादी के सत्तर वर्ष बाद भी खेती से जुड़ी है। उसकी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ करने का सफ़ल राजनीतिक प्रयास होना चाहिए। तो क्या किसानों को मौत के मुंह से बचाने के लिए सरकार तैयार है। है, तो सबसे पहले सिंचाई का वैकल्पिक रास्ता खोजा जाएं। उन्नत तकनीक की पहुँच किसानों तक आसानी से पहुचाई जाएं। कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों को शिक्षित किया जाए। साथ में नकदी फसलों आदि को उत्पन्न करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाए। इनमें सबसे बड़ी बात किसानों की उपज का उचित मूल्य दिलवाने की व्यवस्था स्थापित की जाएं। आख़िर उस देश में ऐसी दोयम स्थिति क्यों है, कि एक किलो आलू किसान की एक रुपए में बिकती है। और विदेशी कम्पनियों का वही आलू जब चिप्स का रूप ले लेता है। फ़िर लोग उसे पैकेट में बीस रुपये का लगभग 30 से 40 ग्राम खरीदने को उतावले रहते हैं। मतलब साफ़ है। हमारा समाज भी देश के अन्नदाता के बारे में कभी आज़तक सोचा ही नहीं, जो सही नहीं। वैसे उम्मीद पर दुनिया कायम है। तो उम्मीद की जाए, कि इस वर्ष मानसून भी अच्छा रहेगा, और सरकार की कृषकों के लिए नीतियां भी तेज़ी से धरातल पर क्रियान्वित होती दिखेंगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896