गाय और मनुष्य का माता और पुत्र-पुत्री का सम्बन्ध
ओ३म्
मनुष्य और गाय दोनों चेतन शरीरधारी प्राणी हैं। दोनों ही शाकाहारी भी हैं परन्तु दोनों के भोजन में भिन्नता है। मनुष्य गोदुग्ध, फल व अन्न आदि का सेवन करता है तो गाय माता घास व तृण आदि वनस्पतियों का सेवन करती है। यदि गाय को अन्न दिया जाये तो वह उसका भी सेवन करती है। गाय किसी भी परिस्थिति में अपनी क्षुधा निवृत्ति के अन्य प्राणियों की हिंसा नहीं करती। गाय मनुष्य से उसका कुछ लेती नहीं है अपितु अपने जीवन भर मनुष्य को इतना देती है कि उसकी गणना करना असम्भव है। जिस देश में जितनी अधिक गाय होंगी उस देश के नागरिक उतने ही अधिक स्वस्थ, निरोग, बुद्धिमान, दीर्घायु, सदाचारी, संयमी, शाकाहारी व एक दूसरे से प्रेम करने व सहयोग देने वाले होंगे। गाय की सेवा करने से मनुष्य को अमृत समान दुग्ध व अमृतमय औषध के रुप में गोमूत्र मिलता है। गोमूत्र से कैंसर जैसे भयानक रोग की चिकित्सा भी सम्भव है। अनेक लोगों इसके सेवन से लाभान्वित हुए हैं।
गोदुग्ध व गोमूत्र के साथ अन्न उत्पादन में सर्वोत्कृष्ट खाद के रूप में गोबर भी प्राप्त होता है। यह गोबर अनेक प्रकार से उपयोग में लाया जाता है व लाया जा सकता है। गोबर के उपले बनाकर हम चूल्हे में भोजन पका सकते हैं। गोबर से सर्वोत्तम खाद तो बनती ही है जिससे हमारे खेतों में स्वास्थ्यवर्धक व रोग निवारक अन्न उत्पन्न होता है। गोबर से आजकल रसोई गैस व विद्युत का उत्पादन भी किया जाने लगा है जिससे घर व पथ को प्रकाशित किया जाता है। गोबर का धुंआ कृमि नाशक होता है जिससे वायु से होने वाले अनेक रोग भी सताते नहीं हैं। गाय अपने जीवन में औसत 13 बार सन्तान उत्पन्न करती है। इससे हमें पुनः नये गाय व बैल मिलते हैं जिससे हम गोदुग्ध आदि पदार्थां सहित खेती करने के लिए बैल प्राप्त करते हैं। इन बैलों का कृषि कार्यों में उपयोग करने से ट्रैक्टरों के समान प्रदुषण नहीं होता और न ही बहुत बड़ी धनराशि ट्रैक्टर खरीदने व नियमित रूप से डीजल व मरम्मत आदि पर व्यय करनी पड़ती है। बैल को गाड़ी के रूप में कृषि उपज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाने ले जाने में भी प्रयोग किया जाता है। सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर अल्प व्यय में लाने ले जाने का गांवों में यह उत्तम साधन है। हम पचपन वर्ष पूर्व एक बैलगाड़ी में बैठकर ही वधु पक्ष के घर पर पहुंचे थे। सृष्टि के आरम्भ से लेकर दो तीन दशाब्दि पूर्व तक हमारे देश की कृषि बैलों पर ही निर्भर थी। आज भी गांवों में बैलों से ही खेती की जाती है। इस प्रकार हमें गाय व बैलों से जितने लाभ होते हैं, इसकी गणना की जाये तो एक गाय गोदुग्ध व कृषि में बैलों द्वारा उत्पन्न होने वाले अन्न के रूप में अपने जीवन भर में हमें करोड़ों रूपये की सम्पत्ति देती है व उसकी बचत कराती है।
गाय पर सामान्य रूप से विचार करने पर हम पाते है कि परमात्मा द्वारा बनाये गये सभी पशुओं में गाय ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है जिससे मनुष्य सबसे अधिक लाभान्वित होते हैं। पहला लाभ तो हमें यह होता है कि हम देश व समाज के लिए उपयेगी एक बहुमूल्य व बहुपयोगी पशु की सेवा करते हैं। कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार गो की सेवा करने से मनुष्य का यह जीवन व परजन्म सुधरता है। गो की सेवा करने से हमें कुछ समय बाद गाय के ब्याहने पर बछड़ी व बछड़े मिलते हैं जो बाद में गाय व बैल के रूप में हमारी सेवा करते हैं। गाय से जो लाभ होते हैं उसका अन्य कोई अच्छा व सस्ता विकल्प आज के आधुनिक युग में भी हमारे पास नहीं है। हमारे देश में दहेज की प्रथा शास्त्रीय नहीं है परन्तु विवाह में गोदान की परम्परा अवश्य शास्त्रीय है। वधु का पिता अपनी कन्या के विवाह में गोदान किया करता था। गाय कन्या के घर जाकर दूघ से पूरे परिवार का भरण पोषण करती थी। हमारे यहां एक प्रथा और थी जो लुप्त हो रही है या लगभग होने को है। वह प्रथा यह थी कि जब कोई कन्या किसी वृद्ध महिला व पुरुष का अभिवादन करती थी तो वह उसे आशीर्वाद देते हुए कहते थे ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’। इस आशीर्वाद में रहस्य छिपा हुआ प्रतीत होता है। इसका अर्थ यही लगता है कि खूब दूध पियो और पुत्र व पौत्रों के साथ आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करो। आजकल की आधुनिक व्यवस्था में लोगों को देशी गाय का शुद्ध गोदुग्ध ही नहीं मिलता। वह सब गोमांसाहारियों की भेंट चढ़ गया है। यदि आप किसी नगर में रहते हैं और चाहें कि किसी देशी गाय का शुद्ध दूध मिल जाये तो यह लगभग असम्भव ही है। लोगों ने दूध कम देने के कारण गुणकारी दुग्ध देने वाली देशी गायों को पालना ही बन्द कर दिया है। जर्सी या विलायती गाय के दूध में देशी गाय वाले गुण नाम मात्र ही कहे जा सकते हैं। आजकल तो शहरों में अधिकांशतः सिन्थेटिक दूध मिलता है जो अनेक रोगों उच्च रक्त चाप, मधुमेह, लीवर व किडनी आदि के रोगों को उत्पन्न करता है। आजकल जिन रासायनिक खादों से कृषि की जाती हैं उससे उत्पन्न अन्न आदि पदार्थों भी बीपी, शुगल से लेकर कैंसर जैसे भयावह रोगों को उत्पन्न करते हैं। यह सब गाय की सेवा न करने, उसे उचित महत्व न देने और आधुनिक जीवन व्यतीत करने आदि दोषों का परिणाम है।
आजकल नगरों में बहुत से दम्पत्तियों को सन्तानें नहीं होती। वह लाखों रूपया व्यय करके भी सन्तान सुख से वंचित रहते हैं। आजकल ऐसे लोगों के लिए टेस्टट्यूब बेबी का विकल्प बचता है। कुछ लाभान्वित होते हैं परन्तु सभी नहीं। यह भी देखा गया है कि टेस्टट्यूब बेबी सामान्य सन्तानों की तुलना में कुछ कमजोर होती हैं। इसके विपरीत प्राचीन काल व आधुनिक काल में जिन परिवारों में देशी गाय होती थीं व होती हैं, वहां सन्तान उत्पन्न न होने जैसे रोग व समस्या से दूर रहते हैं। वहां स्वस्थ व बलवान सन्तानें उत्पन्न होती हैं। नगरों में जहां सभी प्रकार की चिकित्सीय सुविधायें उपलब्ध हैं, उनकी सन्तानें ग्रामों की सन्तानों से स्वास्थ्य, बल व आयु की दृष्टि से कमतर ही होती हैं। नगरों के लोगों को न तो शुद्ध दुग्ध मिलता है न शुद्ध अन्न से बना भोजन और न ही फलादि पदार्थ। वह जो अन्न व फल खाते हैं वह शुद्ध व पवित्र भूमि में हुआ है अथवा मल-मूत्र के संसर्ग से उत्पन्न हुआ है, उन्हें इसका ज्ञान नहीं होता। गांव में अन्न व दुग्ध प्रायः शुद्ध ही मिलता है। अतः वहां न अधिक रोग होते हैं और न ही सन्तानों की 1 या दो तक सीमित संख्या जैसी नगरों में होती है, वैसी कोई समस्या आती है। इसी कारण आज भी हमारा धर्म व संस्कृति गांवों के कारण सुरक्षित है। आगे क्या होगा, इस पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है।
गोरक्षा की चर्चा करने पर प्रश्न किया जाता है कि यदि गोमांसाहार नहीं होगा तो बूढ़ी गाय और बैलों का क्या उपयोग है? यह समस्या हमारी दृष्टि में मनुष्यों द्वारा उत्पन्न की हुई है। परमात्मा ने यह समस्त सृष्टि केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं बनाई अपितु इस पर पशु व पक्षियों का भी मनुष्यों के समान ही अधिकार है। हमने उनके हिस्से के भूभाग का अतिक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया है। सृष्टिकाल के आरम्भ से लगभग 500 वर्ष पूर्व तक भारत प्रायः शाकाहारी रहा है। इतिहास में कभी बूढ़ी गायों व बैलों के रक्षण की समस्या सम्मुख नहीं आयी। सब कुछ सामान्य रूप से चलता रहा। गोहत्या व गोमांसाहार करने की स्थिति इस देश में नहीं आयी। विदेशी आक्रमणकारी लोगों के आने के कारण ही यह समस्या उत्पन्न हुई है। जब लगभग दो अरब वर्षों तक यह समस्या नहीं आयी तो अब भी इसे दूर किया जा सकता है। सरकार का दायित्व है कि वह गो आदि सभी पशुओं की रक्षा करें व उनके संरक्षण के उपाय करे। गोहत्या व अन्य सभी पशुओं की हत्याओं पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो और हत्या करने वालों को कठोरतम दण्ड दिया जाना चाहिये। यदि ऐसा नहीं होगा तो यह देश, इसका प्राचीनतम सर्वोत्तम वैदिक धर्म व संस्कृति बच नहीं सकेगी। आर्यसमाज को इस मानवीय एवं धर्म से जुड़ी समस्या के लिए संघर्ष कर इसे हल करना व कराना चाहिये।
गाय के महत्व की चर्चा करते हैं तो इसका एक पक्ष यह भी सामने आता है कि यदि किसी नवजात शिशु की माता न रहे या उसकी माता को दूध न बने तो बच्चा जीवित कैसे रहे? इसका एकमात्र सरलतम व सुलभ विकल्प देशी गाय का दूध ही है। गाय के दूध से बच्चे का विकास माता के दूध के प्रायः समान ही होता है। गाय अपने जीवन में तो दूध, गोमूत्र, गोबर आदि से हमारा रक्षण व पोषण करती ही है, मरने के बाद उसका चर्म भी हमारे पैरों की रक्षा करने व अन्य कई प्रकार से हमारे उपयोग में आता है।
वेदों के महान ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने गोकरुणानिधि नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उन्होनें एक गाय की एक पीढ़ी से, गाय व बैलों द्वारा, जो दुग्ध व अन्न प्राप्त होता है उसकी गणितीय विधि से गणना की है। उन्होंने गणना कर यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि एक गाय की एक पीढ़ी से 4,10,440 मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। यदि यह मान ले कि एक बार का भोजन औसत पचास रुपयों का होता है तो इससे अनुमानतः 2,05,22,000 दो करोड़ पांच लाख बाईस हजार रूपये का धन प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे उपयोगी पशु को मारकर जो लोग मांसाहार करते हैं वह ईश्वर, वेद एवं मनुष्यता की दृष्टि से अत्यन्त निन्दनीय हैं। ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’ के अनुसार ईश्वर उन्हें उनके इस निन्दनीय कर्म का दण्ड अवश्य देगा। गाय की ही तरह से बकरी भी अत्यन्त उपयोगी पशु है। इसका दुग्ध भी गाय के समान ही अनेक औषधिय गुणों से युक्त है। इसकी भी रक्षा की जानी चाहिये। ऐसा होना तभी सम्भव है जब वेदों के ज्ञानी ऋषि व विद्वान देश के कर्ता धर्ता हों या फिर शुद्ध व पवित्र बुद्धि वाले लोग देश की राजनीतिक सत्ता पर स्थापित हों। यह कभी होगा या नहीं ईश्वर ही जान सकता है।
गो का घृत विष नाशक होता है। इससे वायु प्रदुषण के दुष्प्रभाव को समाप्त किया जा सकता है। इसका उपाय वेदों ने यज्ञ वा अग्निहोत्र को बताया है। यज्ञ में गोदुग्ध से बने घृत व प्रदुषण निवारक ओषधियों की आहुति देने से न केवल वायु व जल आदि की शु़द्ध होती है अपितु इससे आवश्यकता के अनुसार वर्षा होती है जिससे कृषि उत्पादन भी पोषण गुणयुक्त उत्तम व अधिक मात्रा में होता है। यज्ञ में जो धूम्र उत्पन्न होता है वह वनस्पतियों का भोजन बन जाता है। गोहत्या व गोमांसाहार से सज्जन लोगों की यह हानि हो रही है कि इससे उन्हें देशी गाय का अमृत तुल्य दुग्ध व घृत मिलना बन्द हो गया है। यदि मनुष्य मांसाहार न करता तो हमारा अनुमान है कि आज भारत व विश्व में जितने एम्स व अन्य बड़े बड़े चिकित्सालय खुले व बने हैं, उनकी इतनी मात्रा में आवश्यकता न होती। आजकल के अधिकांश रोग विषयुक्त अन्न व वायु, जल आदि के प्रदुषण से ही हो रहे हैं। प्राचीन काल में यज्ञ के प्रभाव से अन्न, वायु एवं जल सभी उत्तम कोटि के मिलते थे। हमारे पास अनेक उदाहरण हैं कि जब एक किसी रोगी को किसी बड़े नामी अस्पताल में भर्ती कराया गया तो रोग तो ठीक क्या होना था, वह बड़ा अस्पताल रोगी को ठीक न कर सका और कुछ ही दिनों में रोगी की मृत्यु हो गई। इसके बाद मृतक के परिवार जनों को 5 से 15 लाख का बिल पकड़ा दिया जाता है। मृतक का शरीर व शव परिवार को तभी दिया जाता है जब अयुक्तिसंगत लाखों रूपये की धनराशि वसूल हो जाती है। बहुत से लोगों ने इसी कारण रूग्ण होने पर भी अस्पताल में जाना बन्द कर दिया है। वह चाहते हैं कि उनके प्राण भले ही जल्दी निकल जायें लेकिन अपने परिवार जनों की उपस्थिति में उनके सामने ही निकले। हमें भी यही ठीक लगता है। यह सब स्थिति वेद मार्ग को छोड़ने, गोहत्या व गोमांसाहार आदि जैसे कृत्यों का ही परिणाम प्रतीत होती है।
यह भी बता दें कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेदों में ईश्वर ने गाय को विश्व की माता बताया है। उसे ब्रह्माण्ड की धुरी भी कहा है। वेदों में गो के लिए अघ्न्या शब्द का प्रयोग कर उसे हनन अर्थात् हत्या न करने योग्य बताया है। वैदिक धर्म व संस्कृति में गो, अश्व, बकरी व भेड़ को ग्राम्य पशु कहकर इन्हें मनुष्य का परिवार बताया गया है। गोरक्षा पर पूर्व यशस्वी सांसद एवं ऋषि दयानन्द भक्त पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी ने ‘गोहत्या राष्ट्र हत्या’ नामक पुस्तक लिखी है। यदि कोई व्यक्ति ऋषि दयानन्द की गोकरूणानिधि, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती की गो की पुकार, पं. प्रकाशवीर शास्त्री की गोहत्या राष्ट्र हत्या और डॉ. ज्वलन्त कुमार शास्त्री की गोरक्षा राष्ट्ररक्षा पुस्तकों को पढ़े लें तो उनकी बन्द आंखें खुल सकती हैं। लेख को और अधिक विस्तार न दे कर ऋषि दयानन्द की चेतावनी के कुछ शब्द प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं कि ‘इससे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं का नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कर्मों की भी घटती होती है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य