सामाजिक

लेख– समाजिक सोच में परिवर्तन बेहद ज़रूरी

भौतिक सुख-सुविधाओं के बढोत्तरी के दौर में आदमी का ईमान और सामाजिकता मर सी गई है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। ऐसे में सिर्फ़ क़ानून को मजबूत करने से शायद बेहतरी की उम्मीद करना मुफ़ीद नहीं लगता। किस-किस क़ानून और सज़ा का ज़िक्र करें। न्यायपालिका क़ानून पे क़ानून बनाती रहती है। फ़िर भी समाज में न अपराध कम होते नज़र आते हैं, और न गैरकानूनी काम। आज के दौर में नैतिकता और सामाजिकता की भावना रसातल में जा चुकी है। एक उदाहरण लेते हैं। बच्चियों के साथ बलात्कार होता है, तो समाज आंदोलित हो उठता है। फांसी की सज़ा की आवाज़ समाज की आबोहवा में गूँज उठती है, लेकिन क्या हमारा समाज कभी यह सोचता है। फांसी की सज़ा किसे और कैसे हो। सरकारी आंकड़े कहते हैं, महिलाओं के साथ ज्यादती के लगभग 90 फ़ीसद से अधिक मामलों में उनके पहचान के लोग ही शामिल होते हैं। फ़िर समाज किसके लिए सज़ा की मांग करता है। कहीं ऐसा तो नहीं। वह संजीदा मुद्दों पर भी राजनीतिक हथकंडा बनकर रह जाता है, और सियासतदां समाज की तार-तार होती सामाजिकता में भी अपने लिए संजीवनी ढूढ़ने लगते हैं।

आज़तक कितने तरीक़े के मामलों में कितनों को फाँसी हुई, क्या उस तरीक़े के मामले अब समाज से छूमंतर हो गए। शत फ़ीसद नहीं। फ़िर मात्र फांसी की सज़ा पर्याप्त नहीं किसी अपराध को समाज से बेदख़ल करने का। आदमी को अपने आदमी होने का एहसास करना होगा। समाज और सामाजिकता की दरकती नींव को नैतिकी के रूप में खाद, पानी की आवश्यकता है। लोगों को समझना होगा, क़ानून के डंडे से ही व्यवस्था नहीं चलाई जा सकती। जब तक उसमें लोगों का सकारात्मक सहयोग नहीं होगा। महिलाओं के साथ अगर बढ़ते अपराध का कारण देखें, तो मुख्यतः चार कारण समझ आते हैं। देश में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति, लिंगानुपात में पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं की कमी, बच्चों के पालन-पोषण में लड़कियों की अनदेखी करना और चौथा कारण सामाजिक शर्म के कारण महिलाओं का खुल कर अपराधियों का विरोध न कर पाना। इसके अलावा रही सही कसर पूरी करती है, लचर और ढ़ीली क़ानूनी प्रक्रिया।

हमारा समाज कितना निष्ठुर, भावहीन और सामाजिकता से परे निकल चुका है। यह इस बात से पता चलता है, कि पहले एक बेटी को पूरे गांव की बेटी माना जाता था। अब हर कोई अपने पराए के भेद में जी रहा है। ऐसे में आधुनिक होते समाज को अपने नैतिक ज्ञान की शाखा को पुनर्जीवित करना होगा। आज बलात्कारी कौन है , किस धर्म और जाति से है। इसके अलावा शिकार और शिकारी की हैसियत भी नापी जाने लगी है। तो लगता यहीं है, समाज बुरी तरीक़े से खेमों में बंटता जा रहा। जो चिंताजनक स्थिति है। जिसमें जल्द बदलाव की आवश्यकता है। इसके अलावा सामाजिक चेतना में बदलाव लाना होगा। नशे को समाज से तिलांजलि देना होगा। इसके साथ महिलाओं को ख़ुद अपनी सुरक्षा के लिए आगे आना होगा। तभी स्थितियों में कुछ सकारात्मक बदलाव दिख सकता है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896