राजनीति

भीड़तंत्र की बढ़ती घटनाएं लोकतंत्र के समक्ष चुनौती

इस समाज को हुआ क्या। जो गंगा-जमुनी तहज़ीब और सभ्यता को बट्टा लगाने में जुट गया है। कहीं भीड़ बेकाबू हो रही। कहीं राजनीतिक स्वार्थ के लिए भीड़ को उकसाया जा रहा। आधुनिक होने का हम ढोंग कर रहें। इक्कीसवीं सदी के भारत में जीने का दम्भ भर रहें, लेकिन हम मानवता और भाईचारे का पाठ अगर भूल रहें। ऐसे में क्या मतलब उन्नति और विकास के दावे का। जिसमें सामाजिकता के सभी दावे भोथरे साबित हो रहें हो। हम सिर्फ़ किताबी ज्ञान हासिल करके पैसे छपाने की मशीन भर बनकर रह जाए। यह तो कतई हमारे देश की संस्कृति नहीं रहीं। हमारा देश सदियों से अनेकता में एकता का पुजारी रहा है। फ़िर वर्तमान दौर में क्यों स्थितियां बेक़ाबू हो चली हैं। समाज हिंसात्मक प्रवृत्ति की तरफ़ तेज़ी से कूच कर रहा है। कोई किसी को फूटी आंख नहीं सुहा रहा। तो यह आम जन के भीतर क्षीण होती नैतिकता की निशानी तो है ही, साथ में कमज़ोर पड़ते मानवीय मूल्यों की बानगी भी पेश कर रहा है।

आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र शासन चलाने की सर्वोत्तम व्यवस्था है। जिसमें रहनुमाओं, आम नागरिकों और शासन प्रणाली की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसमें से अगर एक ने भी अपनी जिम्मदारियों से पल्ला झाड़ लिया। फ़िर समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होने से कोई नहीं रोक सकता। इसमें अगर अवाम भीड़ का शक़्ल लेकर लोकतांत्रिक मर्यादा के विरुद्ध कार्य करने लगें। क़ानून को अपने हाथ में लेने लगें। फ़िर यह सभ्य समाज और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चल रहें देश के समकक्ष बड़ी चुनौती के रूप में पेश आता है। लोकतंत्र में समाज और देश तभी उन्नति कर सकता है, जब वहां की अवाम जातिवाद, भाषावाद और धर्म के चश्मे से परे देखती हो, न कि विकास सिर्फ़ नेताओं के प्रयास से ही संभव हो सकता है। यहाँ पर आज हम एक गहन विषय पर चर्चा करते हैं, जो देश और समाज के साथ क़ानून व्यवस्था के समक्ष बड़ी चुनौती के रूप में पेश आ रहा है। हम बात हिंसक होती भीड़ तंत्र की कर रहें हैं। जो क़ानून और संविधान को ठेंगा दिखाते हुए सामाजिक मूल्यों को नेस्तनाबूद करने पर आमादा होती जा रहीं है। ऐसा नहीं है, समाज में इस तरीक़े की घटनाओं में बढोत्तरी होने के लिए लचर और पंगु प्रशासनिक व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है। पर इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार तो समाज के लोग हैं, जो छोटी-छोटी बात पर भीड़ की शक़्ल लेकर किसी का भी काम तमाम करने का फ़ितूर दिमाग में पाल बैठते हैं।

अनपढ़ता और अफवाहें समाज में उथल-पुथल पैदा करने के लिए काफ़ी हैं। सोशल मीडिया ने उसमें पंख लगाने का कार्य किया है। यह कहना भी अनुचित कहीं से कहीं तक नहीं लगता। बीते दिनों असम में दो युवकों को गांववासियों ने इसलिए पीटकर मार दिया, क्योंकि उन्हें बच्चा चोर समझ लिया गया। आज हमारे समाज में पिछड़ापन इक्कीसवीं सदी में इतना है, कि प्रशासन और आम लोगों के बीच लंबी खाई ख़ुदी हुई मालूमात पड़ती है। बंगाल, उड़ीसा और बिहार जैसे राज्यों में तो स्थितियां बद से बद्दतर मालूम पड़ती है। हम मानते हैं, कि बच्चों की चोरी और मानव तस्करी हमारे समाज और देश की गम्भीर और एक ज्वलंत समस्या है। जिसके आंकड़े साल दर साल कम होने के बजाय बढ़ते जा रहें हैं। तमाम दावों के बावजूद प्रशासन इस पर नकेल कसने में नाकाम साबित ही हो रहा है। जो चिंतनीय विषय है। हिंसक भीड़ के हमलों और हत्या जैसी घटनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ा रुख अपनाया है। जो स्वागत योग्य है। पर समाज के लोगों को ख़ुद सोचना होगा, कि वे कैसे समाज के निर्माण की तरफ़ आगे बढ़ रहे हैं। जिसमें शायद आने वाले वक़्त में मानवीय मूल्यों की जरा सी भी अहमियत नहीं होगी। फ़िर ऐसे समाज का क्या अर्थ रह जाएगा। जिसमें आपसी सहयोग, भाईचारा और प्रेम नाम की कोई बात नहीं होगी।

शीर्ष अदालत ने राज्यों से कहा है कि सामूहिक हिंसा से सख्ती से निपटा जाना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में, खासकर हाल के कुछ महीनों में हिंसक भीड़ ने कई निर्दोष लोगों की जाने ली है। इन घटनाओं से लगता है कि कहीं भी कानून-व्यवस्था ठीक नहीं है। मामूली-सी घटना, बात या अफवाह पर ऐसी घटनाएं हो जाती हैं। जिसकी उम्मीद सामान्यतः परे से बाहर होती है। तो इसके लिए सिर्फ़ क़ानून को दोष दे देना भी पूर्णतः सत्य नहीं होगा। अलबत्ता लोगों की बिगड़ती मानसिकता को भी इन घटनाओं के लिए दोषी ठहराया जाना चाहिए। आख़िर आधुनिक होते समाज के क्या मायने। जब हम अफ़वाह और सच्चाई में फ़र्क नहीं कर पा रहें। यहां एक बात ओर कहीं ऐसा तो नहीं समाज के लोग जानबूझ कर सच्चाई जानते हुए भी वास्तविकता पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं हो सकता। आज हमारे समाज में धैर्य नाम का शब्द विलुप्त होता जा रहा। गोरक्षा, गोमांस, बच्चा चोरी जैसी बातों को लेकर अफवाहें इतनी तेजी से फैल जाती हैं कि जो भी सामने आता है। वही हिंसक भीड़ की चपेट में आकर अपनी जीवन लीला से हाथ धो बैठता है।

ऐसे में अगर शीर्ष अदालत ने राज्यों से कहा है कि सामूहिक हिंसा से सख्ती से निपटने के लिए बेहतर इंतज़ाम करें। तो अब थोड़ी उम्मीद तो बंधती है कि राज्य सरकारें हरकत में आएंगी और कानून हाथ में लेने वाले ऐसे उन्मादियों से सख्ती से निपटेंगी। जिस तेजी से भीड़ का उन्माद देश में बढ़ा है, उससे ऐसा खौफ का वातावरण उत्पन्न हो गया है कि कोई नहीं जानता किस बहाने वह कब , कहाँ और किस बात को लेकर भीड़ का शिकार हो जाए। ऐसा भी नहीं कि किसी राज्य विशेष में ही ऐसी घटनाएं हुई हों। भीड़ तंत्र ऐसे आतंक का रूप धारण करता जा रहा। जिसकी चिंगारी त्रिपुरा से लेकर गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु से राजस्थान तक में देखने को मिल रहा है। हाल-फिलहाल में तो महाराष्ट्र के धुले जिले में बच्चा चोर गिरोह के शक में भीड़ ने पांच लोगों को पीट-पीट कर मारा डाला।

अख़बारी पन्नों के हवाले से अगर आंकड़े प्रस्तुत किए जाएं, तो सिर्फ़ इस वर्ष के मई माह से अब तक भीड़ की पिटाई से उन्नीस लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में मारे जा चुके हैं। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है, कि भीड़ तंत्र किस तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था के सापेक्ष चुनौती का रूप धारण करती जा रहीं है। यहां पर एक तथ्य दीगर हो जाता है, कि राज्य सरकारें ऐसी घटनाओं से निपटने में शत-फ़ीसद नाकाम साबित हो रही। या फ़िर उनके पास ऐसी कोई मुस्तैदी ही नहीं रहती, कि इस तरीक़े के मामलों से निपट सकें। ऐसे में सवाल बहुतेरे उत्पन्न होते है कि आखिर ये घटनाएं रुकेंगी कैसे? ऐसा करने वालों पर लगाम कैसे लगे? इसीलिए सर्वोच्च अदालत ने राज्य सरकारों को ऐसी भीड़ से सख्ती से पेश आने को कहा है। प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले खंडपीठ ने राज्यों को निर्देश दिए हैं, जिसमें साफ शब्दों में कहा गया है कि भीड़ अगर किसी को पीट-पीट कर मार डालती है तो यह सीधे-सीधे हत्या का मामला है, जो कि अपराध है। अदालत ने इसे कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं माना, बल्कि भीड़ के ऐसे आचरण को हिंसा करार दिया है। भीड़ द्वारा पैदा की गई यह अराजक स्थिति है, जिसमें वह कानून अपने हाथ में लेकर खुद ही फैसला करने पर आमादा हो जाती है। इस खौफनाक और घातक प्रवृत्ति से निपटने के लिए राज्यों की मशीनरी को चाक-चौबंद होने की जरूरत है।

भीड़ तंत्र के ऐसे बढ़ते हमले दरअसल असामाजिक तत्त्वों की करतूतें हैं, जो अपने हाथ में कानून लेने से जरा भी नहीं हिचकते। अब तक भीड़ द्वारा हिंसा के जो मामले सामने आए हैं उनके पीछे सबसे बड़ा कारण अफवाह फैलना रहा है। ज्यादातर मामलों में अफवाहें सोशल मीडिया, खासतौर से वाट्सऐप और फ़ेसबुक के माध्यम से फैलती हैं। सरकार ने अब वाट्सऐप से ऐसे संदेशों पर रोक लगाने को कहा है, जो अफवाह फैलाते हों, जिनसे किसी भी तरह की हिंसा के फैलने का अंदेशा हो। यह कदम कितना कारगर होगा, यह देखने वाली बात है। आखिर क्या कारण हैं कि भारतीय समाज में एक खास तरह का भीड़ तंत्र पैदा होता जा रहा है, जो कानून-व्यवस्था और समाज दोनों के लिए चुनौती बन गया है? ये हालात गंभीर खतरे की ओर संकेत करते हैं। क्या इक्कीसवीं सदी के भारत में भीड़ खुद न्याय इसलिए कर रही है कि उसका शासन तंत्र से भरोसा खत्म हो गया है। कारण कुछ भी हो, लेकिन ऐसी घटनाएं हमारी सभ्यता, क़ानून और सरकार पर हस्तक्षेप करती है। जिससे निपटने के लिए भरसक प्रयास करना होगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896