राजनीति

लेख– विकास की बातें सिर्फ़ कागज़ी तो नहीं हो चली!

बात विकास की होती है। बात सुशासन की होती है। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप की खिचड़ी भी पकती है। इतना ही नहीं शिव, सियासत और सिंहासन का ज़िक्र भी होता है। बात क़िस्म-क़िस्म के मॉडल की भी की जाती है। इन सब के इतर भी पिछड़ेपन का दीमक देश से दूर होता नहीं। तो दोष किसे दें। उस जनता को जिसके लिए शासन व्यवस्था चलाई जाती है। या उस व्यवस्था को जो ज़िक्र चुनावी महफ़िल में जनता के सेवक से अपना परिचय देना शुरू करती है। तदुपरांत सत्तारूढ़ होते ही माननीय बन जाते हैं। कोई दल, कोई नेता ऐसा नहीं। जो अपनी छवि चमकाने के पीछे न पड़ा हो। पर अगर ऐसे में 108 ज़िले देश में विकास आदि के नाम पर आज़ादी के सत्तर बसंत बाद भी तरस रहें। फ़िर सवाल तो बहुतेरे हैं। पहला सवाल क्या राजनीति ने जल, जंगल और ज़मीन को बिसार दिया है? हो सकता है, क्योंकि उसके बहीखाते में तो आम अवाम भी नहीं। वे मत तंत्र में मतदाता का उपयोग करके ऐसे उड़न-छू होते हैं, कि फ़िर जनता की समस्याओं की चिठ्ठी सफ़ेद कबूतर भी उनतक नहीं पहुँचा पाते हैं। दूसरा सवाल जब सभी विकास को जमीं पर साकार रूप देने वाले रहनुमा देश में है। तो क्यों 108 ज़िले अपनी फूटी क़िस्मत पर विलाप कर रहें हैं! क्या विकास आज के दौर में सिर्फ़ राजनीति से प्रेरित लोगों को ही दिखने लगा है। बिहार, झारखंड सबसे आश्चर्य तब होता है, जब पता चलता है। गुजरात का ज़िला भी पिछड़ेपन का दर्द झेल रहा। वह भी उस दौर में जब विज्ञापन किया जाता है, कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में।

बीते दिनों नीति आयोग द्वारा जारी विकास पर आधारित जिलों की सूची कई मायनों में महत्वपूर्ण है। इस डेल्टा रैंकिंग के पीछे आयोग का इरादा 108 सबसे पिछड़े जिलों में बेहतरी की प्रतियोगिता को बढ़ावा देना तो है ही। साथ में इस सूची ने यह भी बताया है, कि आख़िर विकास कितना मायने रखता है, सियासतदानों के लिए। फ़िर वे चाहें छोटे स्तर के नेता हो, या फ़िर सांसद, विधायक। फ़िर सवालों की लंबी फेहरिस्त निकलना जायज़ है। जो रहनुमाई व्यवस्था अपने स्वविकास के लिए उतावली दिखती है, उसे अपने क्षेत्र आदि की मलिन दशा क्यों नहीं दिखती? क्यों वह इस बात का इंतजार करता है, कि कोई रिपोर्ट आएंगी, तब उसकी चिरनिंद्रा खुलेगी, कि उनका चयन भी अपने क्षेत्र के विकास और प्रजा रूपी अवाम की बेहतरी का देखभाल करने के मियाद पर हुआ है। आख़िर देश में जुमलों की राजनीति कब तक आश्रय पाती रहेंगी? ऐसा नहीं है, कि अगर देश के कुछ ज़िले पिछड़े है। तो इसका कतई मतलब यह नहीं, कि इसके लिए उत्तरदायी सिर्फ़ चुने हुए सियासतदां है। आज इक्कीसवीं सदी में अवाम कितना जागरूक हुई है। यह बात भी मायने रखती है। वह समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों को लेकर कितनी वफादार है। ये बातें भी देश और समाज के विकास में अहम भूमिका अदा करती है।

नीति आयोग के 108 सबसे पिछड़े जिलों में अगर जिस राज्य में विकास का प्रतिमान स्थापित करके उसका गुणगान देश-दुनिया में किया गया। अगर उस आर्थिक और औद्योगिक रूप से सम्पन्न राज्य गुजरात के दाहोद को पहला स्थान दिया गया है, तो यह चौंकाने वाली बात है। वहीं जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा के सबसे निचले पायदान पर होने को समझा जा सकता है, क्योंकि कश्मीर में लंबे अरसे से अस्थिरता का माहौल है, लेकिन 20 सर्वाधिक पिछड़े जिलों में बिहार, ओड़िशा और झारखंड का होना कई सवाल खड़े करता है। वह भी सीधे तौर पर सियासतदानों की कथनी और करनी पर। नीति आयोग की रिपोर्ट के कथानुसार सर्वाधिक पिछड़े जिलों में से नौ बिहार, पांच झारखंड और तीन ओड़िशा से हैं। ये राज्य आज़ादी के बाद से लगातार देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में शुमार होते रहे हैं, पर बीते कई सालों से यहां मूल राजनीतिक एजेंडा विकास ही रहा है तथा सरकारें इसी मुद्दे पर बनती रही हैं। इन राज्यों में अवाम ने एक लंबी और स्थाई सरकारें भी देखी है। इन राज्यों से विकास के नाम पर बड़े-बड़े राजनीतिक मठाधीश भी तैयार हुए हैं। जो विकास का झुनझुना बजाकर दिल्ली का सियासी तख़्त भी हथियाने को लालायित रहते हैं। फिर ऐसे में इन राज्यों में जिलों का विकास कुंद क्यों है?

बिहार का बेगूसराय राजधानी पटना से सटा हुआ है, तो झारखंड की राजधानी रांची ख़ुद पिछड़ेपन की शिकार है। मार्च में जारी सूची में तेलंगाना का आसिफाबाद 100वें स्थान पर था, अब वह इस सूची में 15वें स्थान पर है। अनेक जिलों ने इसी तरह से बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन उत्तर और पूर्वी भारत के राज्यों के जिलों की हालत बेहद निराशाजनक है। निश्चित रूप से इन राज्यों की सरकारों की जवाबदेही बनती है। आख़िर उस जवाबदेही पर सरकारें कब खरी उतरेंगी? पिछड़ेपन के कई कारक होते हैं, जैसे बरसों से केंद्र से वित्तीय मदद का अपर्याप्त होना, आर्थिक एवं मानव संसाधनों का उचित हिस्सा नहीं मिलना, विकास नीतियों में इन राज्यों को प्राथमिकता नहीं मिलना आदि। इसके अलावा विकास का जोर कुछ क्षेत्रों में अधिक रहता है, कुछ में कम। मसलन, सड़क, ऊर्जा और भवन-निर्माण को प्राथमिकता ज़्यादा सरकारें देती है, क्योंकि वह दीप्तमान होती हैं और शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, सुरक्षा, समाज कल्याण आदि पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। पर सर्वांगीण और स्थायी विकास के लिए यह रवैया ठीक नहीं है। ऐसे में अगर देश को विकसित सच्चे अर्थों में बनाना है, तो राजनेताओं को अपने निहित नफ़ा-नुकसान से इतर होकर सोचना होगा। देश के असमान विकास की समस्या के समाधान के लिए केंद्र और राज्यों को परस्पर सहयोग की भावना से कार्य करना होगा। फ़िर यह नहीं देखना चाहिए, कि केंद्र में किसी सरकार है और राज्य में किसी। आख़िर अवाम तो सबकी है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896