लेख– शिक्षा की बिगड़ती हालत पर गौर करना होगा!
उम्मीद पर दुनिया क़ायम है, ठीक है। पर हर बार सिर्फ़ उम्मीद ही करना यह जायज़ नहीं न। हम उम्मीद करते हैं, एक बेहतर समाज की। प्रबुद्ध और उन्नतशील समाज की। क्या उसके लिए हम माहौल निर्मित कर पा रहें हैं। कभी यह सवाल भी ज़ेहन में उठना चाहिए। अगर हमारा समाज शिक्षित और संस्कारी होगा। तो सामाजिक बुराइयाँ अपने-आप दूर हो जाएंगी, लेकिन क्या आज हमारी शिक्षा में वह ख़ूबी बची है। जो हमें नैतिकता और सामाजिकता का पाठ पढ़ाती हो। शायद नहीं, इतना ही नहीं आज शिक्षा का स्तर ही नहीं कमज़ोर हुआ है। बल्कि सिर्फ़ शिक्षा के नाम पर कागज़ी आँकड़े बढ़ाएं जा रहें। अपना नाम लिखने वाले जिस देश में शिक्षित माने जाते हो, वह देश ख़ाक तरक़्क़ी की मिसाल स्थापित कर सकता है।
वैसे देखा जाएं, तो हमारे देश का संविधान हर नागरिक को बेहतर शिक्षा मुहैया करने का दावा करता है। मगर आजादी के इतने दशकों के बाद भी गरीब बच्चों को क्या बेहतर शिक्षा मिल पा रही है? यह एक अकाट्य प्रश्न बना हुआ है। आज सरकारी स्कूलों की हालत देश भर में क्या है, किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अगर आज आलम यह है कि प्राइवेट स्कूलों में दिन प्रति दिन फ़ीस बढ़ती जा रहीं। फ़िर ग़रीब और मध्यम वर्ग के बच्चे अपना और अपने समाज का विकास कैसे कर सकते हैं? वैसे जुलाई के महीने का लगभग एक हफ़्ता गुज़र चुका है। अब सरकारी नारा भी बुलंद होगा, स्कूल चले हम। ऐसे में अगर यह नारा बुलंद करने के पूर्व सरकारी स्कूलों की बदत्तर हालत पर निगहबानी कर ली जाएं। तो शायद देश का भविष्य सुधर जाएं। देश आज जिस न्यू इंडिया के दौर में गोते लगा रहा। उस दौर में भी इतनी संपन्नता देश में नहीं बढ़ी है, कि सब बच्चें निजी स्कूलों में पढ़ सकें। समय के साथ- साथ सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या में गिरावट देखी जा रही है। वहीं दूसरी ओर निजी स्कूल तेजी से पुष्पित और पल्लवित हो रहें। जहां पर शिक्षा का स्तर ठीक होने और इच्छा होने पर भी एक रंगराजन और तेंदुलकर कमेटी द्वारा निर्धारित 27 से 35 रुपए कमाने वाला अपने बच्चों को नहीं भेज सकता। ऐसे में देश कैसे उन्नति करेगा, और देश का भविष्य उज्ज्वल कैसे होगा। इस बात पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है।
ऐसे में सरकारें इठलाती हो, कि उसने 25 फ़ीसद सीटें प्राइवेट स्कूलों की ग़रीब बच्चों के लिए आरक्षित कर रखी है। तो ये आंकड़े उसके इठलाने पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देंगे, क्योंकि शिक्षा के अधिकार कानून में निजी स्कूलों को अपनी 25 फीसदी सीटों पर कमजोर तबके के बच्चों को दाखिला देने का निर्देश तो दिया गया है। लेकिन, बाल अधिकारों के राष्ट्रीय आयोग की एक हालिया रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि दिल्ली में बीते दो सालों से वंचित तबके के लिए आरक्षित सीटों में से सात फीसदी पर या तो दाखिला नहीं लिया गया। या फिर उन सीटों पर सामान्य श्रेणी के बच्चों का नामांकन हुआ। यह हाल सिर्फ़ राष्ट्रीय राजधानी का है, तो शायद देश की तस्वीर तो स्पष्ट झलक गई होगी। अब बात सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी और उनकी दक्षता पर कर लेते हैं। सर्वप्रथम हिमाचल प्रदेश को ही उदाहरण स्वरूप लें, तो वहां पर सरकारी स्कूलों में 10,000 शिक्षकों के भर्ती का मामला हाईकोर्ट में विचाराधीन पड़ा है। यहीं नहीं सरकारी स्कूल हर राज्य में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कहीं शिक्षक नहीं है, तो कहीं असुविधाओं का अंबार लगा है। तो ऐसी स्थिति में दूसरे उदाहरण के रूप में मध्यप्रदेश की भी हो जाएं। मध्यप्रदेश सूबे में बच्चों के अधिकार पर काम करने वाली संस्था चाइल्ड राइट्स ऑब्जर्वेटरी ने सूबे में शिक्षा के अधिकार की स्थिति जांचने के लिए बीते वर्ष एक रिपोर्ट तैयार की। जिसमें यह तथ्य निकलकर सामने आया, कि सूबे के सरकारी स्कूलों में करीब एक लाख शिक्षकों की कमी है। वहीँ इसके बावजूद सरकार ने 48 फ़ीसद शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों में लगा रखा है। उसके अलावा सूबे के सरकारी स्कूलों की समस्याओं को चुन-चुनकर गिनाने की आवश्यकता तो शायद है, नहीं।
वह काम अख़बारी पन्ने काफ़ी अच्छे ढंग से पेश करते ही रहते हैं। कहीं भवन नहीं, कहीं ज़रूरी संसाधन नहीं। कहीं भवन है, तो जर्जर है। कहीं एक शिक्षक के भरोसे पूरा स्कूल चल रहा। जैसे वह एक शिक्षक भगीरथ बन गया हो। कहीं पेड़ के नीचे सरकारी स्कूल चलता है। ऐसे में एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2017 की रिपोर्ट कहती है, कि देश के 36 फ़ीसद बच्चें देश की राजधानी का नाम तक नहीं जानते। इसके अलावा उन्हें सामान्य गुणा- भाग करना भी नहीं आता। फ़िर हम सरकारी स्कूलों में देश का कैसा कर्णधार तैयार कर रहें। यह कोई बताने की बात नहीं। वैसे जानना चाहें तो जान भी कैसे सकते हैं, ख़बरिया चैनलों पर शिक्षकों की गुणवत्ता तो शायद सभी ने देखी होगी। जब रिपोर्टर ग्रामीण अंचलों में कुछ सामान्य जानकारी पूछता है, तो शिक्षक वह भी देने में असमर्थ पाता है अपने आपको। यह अंगुली हर शिक्षक पर नहीं। व्यवस्था पर है, व्यवस्था चलाने वाले महानुभावों पर है। जो देश को सिर्फ़ नारों में समेटकर चलाना चाहते हैं।
अब उन्हें समझना होगा, कि अगर नारों से देश और समाज तरक़्क़ी कर रहा होता। तो हमारा देश आज शिखर पर होता हर पैमाने पर। आज सतही स्तर पर काम करने की आवश्यकता है, फ़िर वह क्षेत्र कोई भी हो। शिक्षकों की कमी सरकारी स्कूलों से दूर करनी होगी। प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति हो। सरकारी शिक्षण संस्थानों में व्याप्त असुविधाओं को दूर करना सरकारी तंत्र का काम है। उसे समझना होगा। देश में मेधा की कमी नहीं। अगर कमी है, तो अवसर की। ऐसा इसलिए क्योंकि वंचित तबके के लोगों को हमारी सरकारी शिक्षा प्रणाली शुरू से समान अवसर उपलब्ध कराने में असफल साबित हुई है। ऐसा होने का मुख्य कारण सियासतदानों का जनोन्मुखी कार्यों के प्रति सचेत न होना है। शिक्षा के क्षेत्र में जितनी तेज़ी के साथ निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा। उससे भी तेज़ गति से सुविधा सम्पन्नों के द्वारा शिक्षा ख़रीदी जा रहीं, और बहुत सारी प्रतिभाएं अवसर की अनुपलब्धता के कारण तमाशबीन बन बैठती है। ऐसे में एक बेहतर समाज और इंसान के निर्माण के लिए ज़रूरी है, कि शिक्षा के क्षेत्र में गैर- बराबरी को ख़त्म किया जाएं। उस दिन देश भी शिखर की तरफ़ कुच करेगा, और समाज भी नई दिशा की तरफ़ प्रशस्त होगा। तो सरकार को नारों से पहले व्यवस्था पर गौर करना चाहिए। तभी स्थितियां सच में बदरंग से रंगीन हो पाएंगी।