कविता

कशिश

सुनो! कल तुम कुछ पूछ रहे थे
मेरे एहसास जानने को आतुर थे
चुप थी मैं, यह सोच कि क्या कहूँ
अपने दिल में बसे प्यार का करूँ
कैसे बखान
कहीं तुम यह न समझ लो
ब्याथा हूँ किसी की और…
हाँ तो क्या ! प्यार होना कोई गुनाह तो नहीँ
दिल में मचलते अरमान
दिल है धड़कता है किसी के लिए
पराया है तो क्या हुआ
एहसास ही तो है
जो इस पार से उस पार
और उस पार से मेरे दिल तक
पहुँचता है
खुश हैं हम दोनों
कोई स्वप्न नहीं, हक़ीक़त भी नहीं
पाने की चाहत भी नही
खोने का दुःख भी नहीं
हाँ एक कसक है
उस प्यार को पाने की
उस प्यार को जीने की
उस प्यार की अंगड़ाई की
पर ऐसा प्यार
क्षितिज के उस पार
प्रकृति के नियम तोड
जाना होगा शायद उस ओर
जहाँ मिल रही है धरा
उस विशाल नभ् से
हाँ चलो न बाबू उस ओर
यहाँ इस धरा पर प्यार कहाँ
हक़ीक़त से सामना होता है
जहाँ गुरुर अहँकार धोखा ही मिलता है
जूठी आस, अनबुझी प्यास
नहीं है यह देह की
क्या कोई समझेगा चाहत को ।

 

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट श्री द्वारकाधीश मन्दिर चौक बाज़ार भोपाल 462001 मो न. 9424473377