जन्माष्टमी पर लगता है विशाल मेला – नरहड़ दरगाह शरीफ
राजस्थान के झुन्झुनू जिले के चिड़ावा शहर से 7 कि. मी. दूरी पर स्थित साम्प्रदायिक सदभाव का प्रतीक धार्मिक स्थल नरहड़ है।नरहड़ में हजरत शक्करबार की दरगाह है ।अजमेर के गरीब नवाज ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को सूफियों का बादशाह कहा गया है उसी प्रकार नरहड़ पीर बाबा की दरगाह को बागड़ की धनि कहा गया है, क्योंकि पीर बाबा अजमेर पहुंचने से पहले यहां आ गए थे ।नरहड़ के बाबा हजरत शकरवार की दरगाह सांप्रदायिक सदभाव एवं कौमी एकता की जीवंत मिसाल है।इस दरगाह में हिंदू ,मुस्लिम ,सिख, ईसाई सभी धर्म के लोग मंनोति लेकर आते हैं और पूरी होने पर मजार पर प्रशाद व चादर चढ़ाते हैं ।सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हर वर्ष श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर रूहानी बादशाह के दरबार पर यहां विशाल मेला लगता है।” हिंदू मुस्लिम भाई-भाई यही कहता है नरहड़ का हर नर-नारी।इस अटूट प्रेम व स्नेह की मिसाल संभवतः अन्यत्र ही कहीं देखने को मिले।
यह भी संप्रदाय सद्भावना की मिसाल है की श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर इस पवित्र स्थली पर 3 दिवसीय मेला लगता है ।
मजार शरीफ जाने से पहले तीन दरवाजे हैं , पहला बुलंद दरवाजा ,दूसरा बसन्ती दरवाजा,तीसरा बंगली दरवाजा है। इसके बाद शरीफ की मजार चिकनी मिट्टी से बनी हुई जिसमें पत्थर नही लगाया हुआ है ।ै ऐसी मान्यता है कि कभी इस गुम्बन्द से शक्कर बरसती थी,इसलिए पीर बाबा को शक्करबार के नाम से भी जाना जाता है। दरगाह के मुख्य द्वार के आगे चौक में मस्तिष्क प्रेत आत्मा की शिकार महिलाएं व पुरुषं काफी संख्या में रहते हैं।ओर सभी अपने शरीर पर मिट्टी मलते है।। कहा जाता है कि संदल कि इस मिट्टी को मलने से प्रेत आत्मा का साया होता है तो वो हट जाता है।
दगाह परिसर में एक जाल का विशाल पेड़ है।जिस पर आने वाले जायरीन अपनी मन्नत की डोरी बांधते है।ऐसा माना जाता है कि इस पेड़ के डोरी बांधने से मन की मुराद पूरी होती है।और मन्नत पूरी होने पर बाबा के प्रसाद और चादर चढ़ाते है।दरगाह के तीन और मुसाफिर खाने बने है,एक तरफ पीर बाबा के साथियों की मजार है।जिसे “धरसो वालो की मजार” भी कहा जाता है।यहां महिलाओ का प्रवेश नही है।
शेखावाटी के वयोवद्ध साहित्यकार सालिक अजीजी ने अपनी पुस्तक हाजिबुलहरम में एक अफगानी संदर्भ के साथ लिखा है कि सन 1451 ई. में सम्राट लोधी ने दिलावर खान नागड़ को एक फौजी दस्ते के साथ लडने को भेजा, लेकिन जंग में सफलता नहीं मिली। अफगानी सरदार ने अपने सपने में किसी बुजुर्ग को यह कहते देखा कि फला टीले के नीचे मजार है। उसे खोद कर निकाला ओर उसी से प्रेरणा लेकर युद्ध किया और ऐसा करने पर अफगानी सरदार सफल हुए ।उन्होंने टीले की खुदाई से निकले हाजी शक्करवार के रोजे की हिफाजत का काम भी किया।यही हजरत हाजिब शक्करवार बाबा नरहड़ दरगाह के पीर है।बाबा का जन्म 579ई० या 589 हि ० का है।
नरहड़ दरगाह पर वर्ष में 2 उत्सव होते है।प्रति वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर 3 दिवसीय मेला बड़े उत्साह से भरता है।तथा इस्लामी महीने रजब की 25 ओर 26 तारीख को सालाना उर्स मनाया जाता है।इन दोनों उत्सवों पर राजस्थान,मध्यप्रेदश, महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली राज्यो से हिन्दू ,मुस्लिम दोनों सम्प्रदाय के जायरीन बाबा के दरबार मे आते है।
इस अवसर पर दरगाह परिसर को दुल्हन की तरह सजाया जाता है।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कई हिन्दू परिवार यहां अपने नवजात शिशु के मुंडन संस्कार करते है।हिन्दू महिलाएं थाली में पूजा की सामग्री सजाकर अपनी परंपरागत शैली में पूजा करती है तो मुस्लिम जायरीन अपनी परम्पराओ के अनुसार इबादत करती है।
दरगाह का इंतजाम राजस्थान वक्फ बोर्ड के अधीन है।बोर्ड की ओर से एक इंतजामिया कमेटी बनाई गई है।कमेटी दरगाह की पूरी व्यवस्था देखती है।15 एकड़ में दरगाह कमेटी द्वारा संचालित धर्मशाला,सार्वजनिक कुएं,दुकाने तथा भोजन के लिए सुविधाएं फैली हुवी है।
जिला प्रशासन द्वारा भी एतिहात के तौर पर पूरी व्यवस्था पर नजर लगाए रखते है।
— शम्भू पंवार