लघुकथा

लघुकथा – धिक्कार

पति के कई मित्र आये हुए थे। बातचीत के क्रम में इनवेस्टमेंट की बात चली तो सब बैंक में घटते ब्याज दर से परेशान थे  बातों बातों में  ही किसी ने जमीन खरीदने की बात की जो कुछ वर्षों में दोगुना दाम दे सके।
नेशनल हाइवे से समीप ही एक गांव जिसे नई राजधानी बनाने का प्लान किया जा रहा था। हरे भरे खेत,प्रदूषण रहित स्वच्छ हवा  दिलो दिमाग को ठंडक पहुंचा रहे थे।शहर से दूर यहाँ की आबोहवा सबके मन को सुकून दे रहा था। जमीन के मालिक को बुलाया गया साथ ही जमीन के दलाल भी आए। दाम तय कर लिया गया,रजिस्ट्री की बात होने लगी।
दलाल खुश था,खरीददार के चेहरे की रौनक देखते बन रही थी। जमीन का मालिक गरीब किसान की आँखे  खुशी मिश्रित दुख से भर आई ।आज उसने कुछ पैसों के लिये अपनी मां को दूसरे के हाथ में सौंप दिया था।
अवनि चारों तरफ हरियाली ओढ़े खिलखिला रही थी।
पल में ही आत्मा धिक्कार रहा था हस्ताक्षर करते-करते उसके हाथ यकायक हरे भरे खेतों से सीमेंट के बियाबान में खो थम गये।
— किरण बरनवाल

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।