कहानी

मौन का शोर

शाम का समय, पसीने ने पूरे शरीर पर हमला कर रखा है, तिस पर डूबती किरणें दिन भर की थकान को और परेशान कर रही हैं। कोलंबो की सड़कों पर इस समय इतनी व्यस्तता लगी रहती है कि एक किलोमीटर आगे बढ़ने के लिए आधे घंटे के लगभग लगेगा ही। मैं भी सैकड़ों लोगों के कंधों की मारें और गाड़ियों के बीचोबीच घुसनेवाले मोटर साइकिलों के हत्थों की मारें खाते हुए बस अड्डे पर पहुँचता हूँ। जब एक बस गाड़ी आ रोक लेती, तब दो-तीन बसों की सवारियाँ उसमें चढ़ने का संघर्ष करने लगती हैं। बार-बार पैरों की उँगलियों से उछल-उछलकर करने वाली बीस-पच्चीस मिनट की प्रतीक्षा के बाद मेरा मौका आ जाता है।

आपसी संघर्ष, मैं भी। फिर गाड़ी चलने लगती है। दाहिने पैर की उँगलियों के बल को पायदान पर रखकर दाहिने हाथ से दरवाज़े में अटक लेता हूँ। घर जाने की उम्मीद बुद्ध जी की चरणों पर रखकर करनेवाली दैनिक प्रक्रिया पर कोसते हुए पायदान की एक सीढ़ी को जीत लेता हूँ। पसीने बनियान के हमले के बाद अब लंबे बाजूवाली कमीज़ भी घेर रहे हैं। खड़े रहनेवाले हर किसी की निगाहें उस मौके पर तरसती हैं कि कोई बैठता हुआ उतर जाए। लगातार का दबाव, तिस पर रेडियो की कराह गाड़ियों की आवास से मिलकर कान को पीड़ित कर रही है।

दस-बारह मिनट की अविरत कोशिशों के बाद मैं गाड़ी के अंदर, पीछे से कुछ बीच में आ पहुँचता हूँ। बीच की तीसरी कतार, कपड़े का झोला दाहिने कंधे पर लेकर गाड़ी के बायीं ओर मुड़ता हूँ कि खिड़की से अंदर घुसते हुए पवन के झोंके के साथ लंबी लटें सूरत पर आ मँडराने लगती हैं। कभी मुँह में, तो कभी नाक में, कुछ बाल गीले गले में भी जा चिपकते हैं। थके चेहरे के साथ होनेवाली इन लटों की दिल्लगी मेरा गुस्सा और प्रगाढ़ कर देती है। चेहरे को इधर-उधर हिलाते-उठाते कुछ कोशिशें, फिर हाथ से। कुछ बाल अचानक मीरी बायीं कान की पालि को छू लेते हैं। बार-बार। इस हर बार मेरे अंदर हल्की बिजली की सी थरथराहट आ जाती है, तब मैं अपने बायें कंधे पर बायीं कान को रख दबा लेता हूँ।चेहरे पर होनेवाली परेशानी को हाथ से रोकते-रोकते, किंतु कान पर होनेवाली बाल की हरकत तक हाथ नहीं गुज़रता।मैं उस गुदगुदी के एहसास में लिपट जाना चाहता हूँ। मैं शांत अपने दायीं हाथ की ओर इतना मुड़ता हूँ, ताकि सब लटें उस हरकत में जुड़ जाएँ। मैं धीरे अपना मुँह कुछ ऊपर उठाकर आँखें मूँद लेता हूँ।

बस गाड़ी के गतिरोध के धक्के के साथ मेरी आँखें खुल जाती हैं। सचमुच मुझे नींद आ गयी। लटों की हरकत जैसे कि तैसे है।लंबी-लंबी लटोंवाली के दाहिने कंधे पर बाहर उभरी-निकली काली पट्टी की ओर मेरी बायीं नज़र जा पहुँचती है। मैं फिर पहली आकृति तक अपना शरीर घुमा लेता हूँ। लटों की परेशानी अब कुछ और एहसास दिखाने लगती है।

लटोंवाली के बाएँ कंधे से कुहनी पर उसका झोला बार-बार गिरता है, इस हर बार जब वह अपने दाहिने हाथ से झोले को लेकर कंधे पर रखने की कोशिश करती है, तब उसके बदन से निकालनेवाला मौन-अभिनय, जिसमें उसके भारी नितंब का बड़ा हाथ है, हम दोनों के बीच का अंतराल, जहाँ से लगे बिना हाथ तक न गुज़रा जा सके, दूर भागने का इशारा दे रहा है। हाँ, पहले से ही मैं उस कोशिश में हूँ तथा सिलसिले बढ़नेवाली भीड़ व उसके साथ बढ़नेवाला दबाव मेरे उस कोशिश की अविरत मदद कर रही है। मैं नाक से निकलनेवाली साँस ऐसे निकाल देता हूँ कि उसके कंधे की आसपास छू ले, किंतु उसे एहसास न हो और खिंची साँसों के साथ सीधे नाक तक पहुँचनेवाली उसकी इस समय की बू सूखे गले के लिए पानी की तरह लग रही है।

बार-बार उसके कंधे की काली पट्टी पर दौड़नेवाली मेरी निगाहें अब उस हद को पार करके कुछ नीचे तक पहुँच सकती हैं। दबाव अपना काम पूरा कर चुका है। गतिरोध के धक्के जितना बल देते हैं, मैं उसमें अपने शरीर का कुछ बल अवश्य मिला देता हूँ, लेकिन लंबे बाजूवाली कमीज़ की इज़्ज़त पर भी ध्यान अवश्य दौड़ता है।

मैं मुझसे पूछता हूँ कि सत्ताईस साल का अविवाहित युवक ऐसी दशा का संचालन कैसे कर ले। मैंने इतना कुछ कर लिया, किंतु उस लटोंवाली को एक ही एहसास न होने दिया। काश यह जगह अपने लिए बनी होती, उस लटोंवाली का हाथ भी इसमें शामिल होता, सोचते-सोचते मुझसे सहा नहीं जाता, इस हर बार लंबे बाजूवाली कमीज की याद आती है। इज्ज़त और प्यास! मैं धीरे से अपना बायाँ हाथ नीचे करके कमर की पट्टी कुछ हल्का कर लेता हूँ।

तेज़ चलती हुई साँसें धीरे-धीरे हल्की और लंबी हो जाती हैं। यह वेदना भी थकावट से मिलकर मुझे शिथिलत कर रही है, इसलिए मैं उसी हालत में पलंग पर लेट जाता हूँ। दोनों पैर पसारकर, दाहिना हाथ सिरहाने पर और सिर हाथ पर रखकर आँखे मूँद लेता हूँ। साँसों की गति साधारण है, लेकिन आवासीय घर के जीवन के साथ जुड़ा कोई अकेलापन और ऊब कहीं से आ समेट जाते हैं। मेरी सोच उस व्याकुलता में डूब जाती है, जो गाड़ी से उतरकर लौटते समय मुझे उत्तेजित कर रही थी, क्योंकि वहाँ मुझमें जो आग लग गयी थी, मुझे उसमें जलना चाहिए था, कहीं वह आग बुझेगा तो नहीं, इसलिए मेरा जल्दी लौटना भी जरूरी था।

अगला कदम, पेशाब की ज़रूरत मेरी आँखे खोल देती है। मैं खड़े होकर तौलिया पहनता हूँ और पलंग पर पड़े गीले टिशू को खिड़की से बाहर पिछवाड़े फेंकता हूँ। वहाँ जगह-जगह फेंके कई टिशू पड़े हैं।

— डी. डी. धनंजय वितानगे – श्री लंका