सामाजिक

आलेख– गांधी का जीवन-दर्शन, हम और हमारी व्यवस्था

डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के मुताबिक दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं, जीवन को बदलना है। ऐसे में अगर हम बात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की करते हैं, तो उनके जीवन सिद्धान्त अपने-आप में कदापि दर्शन से कमतर नहीं है। जिस पद्धति पर अगर आज मानव समाज चलें। तो वह अनगिनत दुश्वारियों और समस्याओं से निज़ात पा सकता है, जो आज के दिनों में किसी स्थान विशेष की नहीं बल्कि वैश्विक स्तर की समस्या बनती जा रहीं। बात गांधी और आज के आधुनिक दौर में उनके विचारों की प्रासंगिकता की हो रहीं। ऐसे में पहले तफसील से यह पता करतें हैं, गांधी थे कौन? जिनके विचार और जीवन-दर्शन आज भी प्रासंगिक है। गांधी जी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर, गुजरात में हुआ था। गांधी जी के बारे में विश्व विख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन कहते हैं, आने वाली पीढ़ियां शायद मुश्किल से ही यह विश्वास कर सकेंगी, कि गांधी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा? वास्तव में अगर आज के दौर में जब वैमनस्यता, बर्बरता और जघन्यता समाज में बढ़ रही। तो यह सचमुच में बहुत कुछ अपने-आप में सोचने-समझने को विवश कर देता है, कि गांधी सिर्फ़ और सिर्फ़ हाड़-मांस के व्यक्ति नहीं थे बल्कि एक सम्पूर्ण अपने आप में विचारात्मक, सामयिक व्यक्ति थे, और उनका जीवन किसी दर्शन की झांकी से कम नहीं। जिसके अनुपालन मात्र से आज के दौर की अनगिनत समस्याएं गायब हो जाएं। आज बात गांधी की प्रासंगिकता की हो रहीं। तो उनके जीवन-दर्शन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर तफसील से दृष्टि डालनी पड़ेगी। उनके जीवन दर्शन में पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने, समाज को नई दिशा और दशा देने के साथ लोकतंत्र का जो चौथा स्तम्भ आज अपनी विश्वनीयता और साख खो रहा। सभी को पुनः प्राप्त करने का साम्य भाव दिखता है।

जिस दौर में आज हमारा समाज विभिन्न मुद्दों पर बंटा हुआ नज़र आता है। वैसी विषम परिस्थितियों में भी गांधी के जीवन दर्शन से सीख लेकर नेतृत्व करने और संगठन निर्माण करने के साथ समाज को कुरीतियों और सामाजिक बुराइयों से दूर किया जा सकता है। गांधी के जीवन के कितने पहलू हो सकते हैं। इसका साधारण शब्दों में बखान नहीं हो सकता। वह एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व के धनी रहें, जिसमें समाज सुधारक, पत्रकार, नेतृत्वकर्ता आदि के गुणों का समावेश रहा। गांधी के विचारों में ऐसा ओज और सामर्थ्य है, जिससे देश और समाज को उन्नतिशीलता और उत्थान की तरफ अग्रसर किया जा सकता है, लेकिन सत्ता का खेल आज के दौर में इतना पेंचीदा हो गया है। जिसके इतर सियासत के नुमाइंदों को कुछ दिखता नहीं। वे मततंत्र का निर्माण करने के लिए गांधी का ज़िक्र तो करते हैं, लेकिन उनके सपनों का देश बनाने के लिए उनके विचारों के अनुगामी बनने को तनिक भी रुचिकर नहीं लगते। ऐसा वास्तव में है, नहीं तो जिस गांधी के नाम को थोक में सभी राजनीतिक दल बेच रहें। अगर उनके विचारों पर 20 से 30 फ़ीसद भी चलते। तो जिन समस्याओं से देश की अवाम आज दो-चार हो रहीं। वह दूर कब का हो जाती।

1) गांधी के विचार और आज की सियासी तिकड़मबाजी:-

गांधी बात ग्राम-स्वराज की करते रहें, हमारी वर्तमान व्यवस्था तो जैसे गांव, ग्रामीण की रूपरेखा ही ख़त्म करने पर आमादा हैं। यहां सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नज़र आएंगे। गांधी बात सत्य और अहिंसा की करते हैं, तो हमारी लोकशाही व्यवस्था लोकतांत्रिक गणराज्य में लोगों को जाति-धर्म में बरगलाकर अपनी सियासी दुकान को बढ़ा रहीं है। फ़िर ऐसे में गांधी के सपनों के भारत का क्या होगा, यह समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। यहां यह भी स्पष्ट होना चाहिए, ऐसा नहीं गांधी के सपनों के भारत पर कार्य देश में चल नहीं रहा। हो रहा है, लेकिन गति धीमी है। स्वच्छ भारत मिशन आदि उन्हीं के सपने के भारत का हिस्सा है। हां यहां एक बात जरूर अगर देश में बेहतर माहौल और गंगा-जमुनी तहज़ीब आदि को जिंदा रखना है, तो सियासी नुमाइंदगी के साथ अवाम को गांधी के विचारों को कंठस्थ कर उसे आत्मसात करना होगा। आज हम बात गांधी जी की कर रहें, तो आज के भारत और गांधी की प्रासंगिकता पर तफसील से चर्चा होनी चाहिए और गांधी के जीवन-दर्शन का उल्लेख करते हुए आज की व्यवस्था में क्या उनके विचारों के अनुसार होना चाहिए, इसका भान समाज और व्यवस्था को कराना है। तभी बेहतर राष्ट्र का निर्माण हो सकता है।

2) गांधी और आज की सामाजिक व्यवस्था:-

आज हमारा समाज आज़ादी के सात दशक बाद भी ऊंच-नीच की चक्की में पीस रहा। जो देश की उन्नतिशीलता में बाधक है। फ़िर भी सियासतदां अपनी सियासी दुकान का वजूद बनाएं रखने के लिए जाति-धर्म की जंजीरों में देश को उलझाए रखना चाहते हैं। फ़िर कैसे मान लें, कि आज के सियासी नुमाइंदगी अपने देश के महापुरुषों के विचारों को महत्व देती है। जब गांधी के ग्राम स्वराज्य में राजा-किसान और हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद-भाव नहीं किया गया। इसके अलावा उनके ग्राम-स्वराज्य में भेद-भाव और ऊंच-नीच के लिए कोई जगह नहीं। फिर अपने मततंत्र को बनाएं रखने के लिए जातियों के फेर में देश को क्यों बांट कर रखा जा रहा। जब बात सियासी तौर पर हो, या किसी अन्य स्तर से। अखण्ड भारत और राष्ट्रवाद की बलवती चर्चा होती है। ऐसे में प्रश्न यहीं जब बात एक सुनियोजित और सुसंगत राष्ट्र की होती है, तो उसका निर्माण कैसे होता है। यह कोई तर्क-वितर्क का विषय नहीं। एक राष्ट्र का निर्माण मकान बना देने या पेड़ लगा देने से तो होगा नहीं। राष्ट्र का निर्माण समाज और समाज में रहने वाले लोगों से होता है। ऐसे में जब हम बात करते हैं, एक उन्नतशील और समृद्धिपूर्ण राष्ट्र की। तो उसमें हर एक तबक़े का योगदान होना चाहिए। फ़िर वह योगदान किसी भी रूप में हो। यह मायने नहीं रखता।

अगर तफसील से यहां एक बात देखी जाएं। तो यक्ष प्रश्न यही, कि जो सामाजिक ताना-बाना आधुनिक होते भारत में चल रहा। उसमें सभी को बराबरी के स्तर से प्रतिनिधित्व प्राप्त हो रहा? उत्तर नकारात्मक ही होगा। हां में होगा भी कैसे, अगर हाँ में होता तो दलित महिलाओं की जीवन जीने की अवधि सामान्य महिलाओं के मुकाबले 15 वर्ष कम नहीं होती। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘टर्निंग प्राॅमिसेज इनटू एक्शन : जेंडर इक्वेलिटी इन 2030 एजेंडा’ नाम की एक रिपोर्ट आती है। जिसके मुताबिक देश में दलित वर्ग की महिलाओं की औसत उम्र ऊंची जाति की महिलाओं की तुलना में 14.6 वर्ष कम होती है। रिपोर्ट के मुताबिक यह कमी कमजोर साफ-सफाई, पानी की अपर्याप्त आपूर्ति और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के साथ जाति का भेद आदि के कारण होती है। तो ऐसे में यहां एक बात दृष्टिगत करने वाली यह भी है, जब हम संवैधनिक और लोकतांत्रिक देश की दुहाई देते हैं। फ़िर सभी को समान अधिकार और हक़ स्वतः प्राप्त हो जाने चाहिए थे, लेकिन कुछ सामाजिक और राजनीतिक पूर्वाग्रहों की वज़ह से आज़तक समाज का कुछ अंश ऐसा शेष रह गया है। जो मुख्यधारा में अपने अस्तित्व को देखने के लिए पलक पसारे अभी तक इंतजार कर रहा है। ऐसे में समझ सकते हैं, गांधी के सपनों की तरफ़ देश पूर्णरूपेण आगे नहीं बढ़ पा रहा। ऐसे में अगर देश को सचमुच का विश्वगुरु और गांधी के रामराज्य के रूप में तब्दील होना है, तो सभी का हक़ समान होना चाहिए, बेजा का ऊंच-नीच की भावना को सभी स्तर से तिलांजलि देनी होगी।

3) गांधी का विचार, ग्राम- स्वराज्य और युवा पीढ़ी:-

आज युवा पीढ़ी राजनीतिक रूप से उपेक्षित है। इतना ही नहीं गांव भी उपेक्षा के शिकार हैं। हां यह जरूर है, वर्तमान सरकार ने देश की आत्मा यानी गांवों को नया जीवन देने के लिए सांसद आदर्श ग्राम योजना जैसी महत्वाकांक्षी रूपरेखा तैयार की, लेकिन जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा का शिकार होती यह योजना नज़र आई। गांधी के विचारों में ग्राम- स्वराज्य और ग्रामोद्योग का अमिट स्थान था। होना भी चाहिए, जिस देश की अधिकतर आबादी गांवों में निवास करती हो। उसकी समृद्धि तो गांवों के विकास में ही सन्निहित है। गांधी जी के मुताबिक ज़रूरत के समान का उत्पादन ग्रामीण स्तर पर ही होना चाहिए। साथ में खादी के जरिए आत्मनिर्भर बनने की तरफ़ अग्रसर होना चाहिए। तो ऐसे में आज के दौर की व्यवस्था को यह समझना होगा, कि विदेशी कम्पनियों से देश और समाज का भला नहीं होने वाला। देश में ऐसी प्रतिभा को जन्म दिया जाएं। जो देश के विकास के वाहक बनें। युवाओं को राजनीति और अन्य स्तर पर प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। जिससे उनकी क्षमता का देश को समय रहते लाभ मिल सकें। गांव और कृषि को समृद्ध बनने की पहल हो। कुटीर और छोटे लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। साथ में मेडिकल कॉलेज और अन्य रोजगारपरक संस्थाओं की पहुँच ग्रामीण अंचलों तक हो। तभी देश व्यापक स्तर पर समृद्वशील और विकसित होने के साथ गांधी के सपनों का ग्राम स्वराज्य स्थापित कर सकता है।

4) गांधी जी का स्वच्छता को लेकर विज़न:-

गांधी और स्वच्छता दोनों एक- दूसरे के पर्याय हैं। ग़ांधी की दिनचर्या की शुरुआत ही स्वच्छता के कर्मों से शुरू होती थी। मगर देश का दुर्भाग्य आज़ादी के वक़्त देश की राजनीति ने केवल गांधी के नाम पर राजनीति ही की। उनके विचारों और आदर्शों को तो तिलांजलि ही दे दी। स्वच्छता समाज और देश की नैसर्गिक आवश्यकताओं में से एक है। आज़ादी के बाद देश की राजनीति ने बड़े- बड़े राजनीतिक सुधार की बात तो की, लेकिन समाज की सबसे बड़ी सामाजिक बुराई पर ध्यान न दे सके। जो समाज में उत्पन्न होने वाली समस्याओं की जननी है।
महात्‍मा गांधी के स्‍वच्‍छ भारत के स्‍वप्‍न को साकार रूप देने का अगर भगीरथ प्रयास किसी सरकारी व्यवस्था ने किया, तो उसमें अग्रणीय पंक्ति में नाम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान भाजपा सरकार ने किया।

5) गांधी के स्वच्छता मिशन को आगे मूर्त रूप देती मोदी सरकार:–

गांधी के अनुसार उनका जीवन ही संदेश है। फ़िर ऐसी विराट शख्सियत के जीवन के प्रत्येक पहलू से देश और समाज कुछ न कुछ विशेष ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वैसे तो गांधी जीवन के बहुत सारे उद्देश्य थे, लेकिन उनमें एक उद्देश्य उनका स्वच्छ भारत की परिकल्पना भी थी। तभी तो उनकी दिनचर्या की शुरुआत सुबह भोर के वक़्त चार बजे से शुरू हो जाती थी। जिसमें उनका पहला काम अपने परिवेश को स्वच्छ करना रहता था। आज की स्थिति में अगर किसी ने गांधी के स्वच्छता को साकार रूप देना का काम किया है, तो वह वर्तमान में देश की मोदी सरकार है, क्योंकि उस दौर में स्वच्छता का संदेश देने के लिए अगर झाड़ू गांधी जी ने उठाया था, तो वर्तमान में मोदी सरकार भी उन्हीं के नक्शे कदम पर चलकर स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत की परिकल्पना को सिद्ध करने में लगी हुई है। गांधी के सपनों का स्वच्छ भारत बनाने की दिशा में मोदी सरकार ने सार्थक प्रयास किया है। जो अब अपने परिणामों से सूचित कर रही है, कि आने वाले 2019 में जब देश गांधी जी की 150 वीं जन्मजयंती मनाने के लिए एकत्रित होगा। उस समय देश गांधी के सपनों के भारत के करीब अग्रणी पंक्ति में खड़ा होगा। प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने 2 अक्‍टूबर 2014 को स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया, और इसके सफल कार्यान्वयन के लिए देश के सभी नागरिकों से इस अभियान से जुडऩे की अपील की। वह अपील आज के दौर में अपार जनसमूह का रूप ले चुकी है।

6) गांधी व्यक्ति नहीं, विचार–

गांधी देश के समक्ष व्यक्ति नहीं, विचार के रूप में प्रतिस्थापित होने चाहिए, लेकिन उनके विचारों का सबसे अधिक दोहन उनके विचारों के लोगों ने ही किया। गांधी के विचारों को छोटा बताने की कोशिश की गई। अगर गांधी के विचारों और शिक्षा पद्धति पर ही आज़ादी के वक़्त की तत्कालीन सरकार चलती। तो आज़ादी के लगभग सात दशक बाद देश के लोगों को मूलभूत बातें सिखाने की जैसे खुले में शौच मुक्त भारत आदि बताना नहीं पड़ता। गांधी की दिनचर्या की शुरुआत ही स्वच्छता के मिशन से होती थी, लेकिन बीते कुछ समय तक की राजनीतिक और सामाजिक अकर्मण्यता ने देश को राजनीति के स्तर पर कमजोर करने के साथ स्वच्छता और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी कमजोर किया । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि साफ-सफाई, ईश्वर भक्ति के बराबर है और इसलिए उन्होंने लोगों को स्वच्छता बनाए रखने संबंधी शिक्षा दी थी और देश को एक उत्कृष्ट संदेश दिया था। उन्होंने ‘स्वच्छ भारत’ का सपना देखा था जिसके लिए वे चाहते थे कि भारत के सभी नागरिक एकसाथ मिलकर देश को स्वच्छ बनाने के लिए कार्य करें। महात्मा गांधी रोजाना सुबह चार बजे उठकर अपने आश्रम की सफाई किया करते थे। वर्धा आश्रम में उन्होंने अपना शौचालय स्वयं बनाया था जिसे वह प्रतिदिन साफ करते थे। जो सपना आज के दौर में मोदी सरकार के नेतृत्व में सफ़ल होता हुआ दिख रहा है।

7) महात्मा गांधी के जीवन काल में स्वच्छता का अभिप्राय:-

महात्‍मा गांधी के स्‍वच्‍छ भारत के स्‍वप्‍न को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने 2 अक्‍टूबर 2014 को स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया और इसके सफल कार्यान्वयन के लिए देश के सभी नागरिकों से इस अभियान से जुडऩे की अपील की। इसके पहले गांधी के स्वच्छ भारत को लेकर स्पष्ट विचार थे। उनके मुताबिक हाथ में झाड़ू और बाल्टी लेकर ही देश और अपने आस-पड़ोस को स्वच्छ बनाया जा सकता था। एक बार एक अंग्रेज ने महात्मा गांधी से पूछा, यदि आपको एक दिन के लिए भारत का बड़ा लाट साहब बना दिया जाए, तो आप क्या करेंगे। गांधीजी का उत्तर चौकानें वाला था, उन्होंने कहा कि वे राजभवन के समीप की गंदगी दूर करने का प्रयास करेगें। दोबारा पूछने पर भी वहीं उत्तर दिया। गांधी के इन उत्तरों से अंदाजा लगाया जा सकता है, कि गांधी जी स्वच्छता के प्रति कितने संजीदा थे। आज के दौर में उसी लग्न और संजीदगी के साथ स्वच्छ भारत का सपना देश में मोदी सरकार पूर्ण करने में लगी है। गांधी के विचार के अनुसार अगर लोग अपने हाथ में झाड़ू और बाल्टी नहीं लेंगे, तब तक आप अपने नगरों और कस्बों को स्वच्छ नही रख सकते हैं। एक बार गांधी जी ने एक स्कूल को देखने के बाद कहा था, कि आप अपने छात्रों को किताबी पढ़ाई के साथ-साथ खाना पकाना और सफाई का काम भी सिखा सके, तभी आपका विद्यालय आदर्श विद्यालय होगा। गांधी जी के विचार में आज़ादी से पहले स्वच्छता थी। इन तथ्यों से उजागर होता है, कि स्वच्छता उनकी पहली प्राथमिकता थी, लेकिन आज़ादी के तत्काल बाद उनके इस विचार को धूल-धूसर करने का षणयंत्र उनके अपनों ने ही देश में किया।

8) वर्तमान में स्वच्छ भारत किस दिशा में:-

कुछ उदाहरण देखते हैं। उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के कुछ गांवों की बात हो। या देश के अन्य हिस्सों के गाँव का बदलता स्वरूप गांधीजी के खुले में शौच मुक्त ग्रामीण परिवेश के सपनों को साकार करता प्रतीत होता है। बिजनौर के गांव धरमपुरा की ग्राम प्रधान ने अपनी मेहनत और लगन से गांव धरमपुरा को खुले में शौच से मुक्त करके दिखा दिया है , कि महिलाएं अगर कुछ करने की ठान लें , तो वे बड़े- बड़े सामाजिक बदलाव ला सकती हैं। गौरतलब है कि भारत की आधी से ज्यादा आबादी 2014 तक खुले में शौच करने के लिए मजबूर थी। जो कि अनेक बीमारियां जैसे डायरिया, हैजा, टाइफाइड जैसी बीमारियां का कारण बनती थी। जिसके कारण कई बार बच्चों की मौत तक हो जाती थी। इसके साथ बीमारियों के अलावा खुले में शौच करने के कारण यह महिला सशक्तिकरण के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा थी, क्योंकि ग्रामीण इलाकों में लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं ज्यादातर ऐसे वक्त में होती हैं जब वे शौच के लिए खेत में जाती थी। जिसमें स्वच्छ भारत अभियान के बाद कमी आई है।

अब मोदी सरकार के लगभग साढ़े चार वर्षों के कार्यकाल के पूरा होते तक पूरे देश में स्वच्छता क्रांति का रूप ले चुकी है। एक आँकड़े के मुताबिक देश भर में साढे आठ करोड़ शौचालय बनवाये जा चुके हैं। अब देश के लगभग 90 फीसदी लोगों के पास शौचालय की व्यवस्था है, जबकि 2014 तक यह आंकड़ा केवल 40 फीसदी था। देश में साढ़े चार लाख गांवों, 430 जिलों, 2800 शहरों और 19 राज्यों और केंद्र शाषित प्रदेशों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया जा चुका है। जो स्वच्छता के क्षेत्र में गांधी के सपनों को उड़ान दे रहा है।

5. मोदी सरकार के दृढ़ आत्मबल का परिणाम स्वच्छ भारत अभियान–

स्वच्छ भारत की शुरूआत देश के प्रधानमंत्री ने की थी। हमारे देश के प्रधानमंत्री ने 2 अक्टूबर 2014 को इसकी शुरूआत खुद झाडू उठाकर की थी, और 2019 तक भारत को स्वच्छ राष्ट्र के रूप में देखने की संकल्पना देश के सामने रखी थी। वर्तमान समय में यह अभियान अपने सकारात्मक दृष्टिकोण को लेकर गांधी के सपनों को साकार करता हुआ दिख रहा है। यह हमारी पिछली सरकारों की कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति और जन सरोकार के विषय में न सोचने का ही कारण रहा है, कि जो काम स्वच्छता को लेकर आज़ादी के वक्त ही हो जाना चाहिए था। उस कार्य के लिए कर्तव्यपरायणता वर्तमान सरकार मोदी के नेतृत्व में लेकर आगे बढ़ रही है। देश की विडंबना देखिए, गांधी का राजनीतिक प्रयोग करने वाली राजनीतिक दलों ने कभी गांधी के विचारों पर ध्यान नही दिया। अगर दिया होता, तो देश को आज़ादी के सात दशक बाद यह नहीं सिखाना पड़ता, कि क्या उनके और उनके वातावरण के लिए उपयुक्त होगा। देश के नागरिकों ने इस अभियान को सफल बनाने के लिए अपना भरपूर सहयोग दे रहें हैं। महात्मा गांधी के लिए सरकार ने अलग मंत्रालय का निर्माण किया। यह सरकार का गांधी के उदेश्यों को पूर्ण करने का अनूठा प्रयास था। जिस उद्देश्य को प्राप्त करने में मोदी सरकार सफल भी हो रहीं है।

महात्मा गांधी और आज की पत्रकारिता:-
गांधी जी के जीवन के विविध और बहुआयामी रंग है। जैसे हर रंग कुछ न कुछ सीख देता है। वैसे ही गांधी जी के व्यक्तित्व के हर किरदार से कुछ न कुछ सीखा और अनुसरण किया जा सकता है। आज के दौर में जब लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह ख़ड़े होने लगें हैं। तो पत्रकारिता जगत को गांधी के पत्रकारिता जीवन से कुछ सीखने की आवश्यकता है। मानते हैं। आज के दौर में गांधी जैसी पत्रकारिता नहीं हो सकती, क्योंकि जब पत्रकारिता पेशा बन चुकी है। तो शत-फ़ीसद निष्पक्ष की उम्मीद अतिश्योक्ति ही लगती है। फ़िर भी पत्रकारिता का उद्देश्य क्या है। उसका कुछ हद तक तो संरक्षण होना आवश्यक है। महात्मा गांधी ने 2 जुलाई 1925 के अपने यंग इंडिया की सम्पादकीय में लिखा था, कि उनका पत्रकारिता करना सिर्फ़ पत्रकारिता करना नहीं, बल्कि जन सेवा करना है। इसके अलावा उन्होंने लिखा कि मेरा लक्ष्य पत्रकारिता के माध्यम से धन कमाना नहीं। तो मानते हैं, आज की स्थिति तब जैसे नहीं। फ़िर भी मानवीय धर्म से समझौता तो नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता का धर्म अगर समाज को शिक्षित और जागरूक करना है, तो वह दिखना भी चाहिए। जो आज की वैश्विक दौर की पत्रकारिता से नदारद होता दिख रहा। इसके अलावा गांधी जी ने जिस सम्पादकीय की नींव रखी थी, वह आज सत्त्ताधारी आदि की चिलम फूंकने का कार्य करने को आतुर हुई दिखती है। उसकी निष्पक्षता को बनाएं रखना होगा, अगर सच में हम गांधी के आदर्शों पर बने रहना चाहते हैं। एक बार गांधी जी ने कहा था, ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका मतलब आत्मबल हो, उसके लिए पत्रकारिता आवश्यक है। अगर मैंने अखबार निकाल कर उनकी(अंग्रेजों) की स्थिति न बताता तो मेरा अखबार निकालने का उद्देश्य पूरा न होता। अलबत्ता आज की स्थिति देखी जाएं तो न अंग्रेजों से देश घिरा हुआ है, और न कोई लड़ाई चल रही। जिससे अखबार और पत्रकारिता लड़ने का कार्य करें। फिर भी पत्रकारिता का जो सकल उद्देश्य लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में है। वह पूर्ण रूप से निष्पादित होना चाहिए। पत्रकारिता किसी के दबाव में नहीं होनी चाहिए। जनता को गुमराह करने की चाल नहीं, सच से रूबरू कराना होगा। हां बशर्तें एक बात है अपना वैश्विक हित को तिलांजलि बिना दिए हुए।

पुनश्च:-

गांधी एक व्यक्ति नहीं, उनके जीवन दर्शन में जीवन जीने की कला प्रवाहित होती है। उनके जीवन दर्शन से हमें और समाज को काफ़ी कुछ सीखने की आवश्यकता है। वह भी उस दौर में जब हम आपस में ही आंतरिक कलह से जूझ रहे। फ़िर वह कलह चाहें जाति-धर्म को लेकर हो अथवा भाषा या अन्य वज़ह से। उन्होंने एक ऐसे रामराज्य की कल्पना की थी, जिसका आधार धर्म नहीं, बल्कि आदर्श और मानवीय मूल्य था। फ़िर उनके विचारों की नई राजनीतिक पौध क्यों रामराज्य का अर्थ धर्म विशेष से जोड़ती हैं। यह समझ नहीं आता। लोकतंत्र मजबूत तभी बनता है, जब उसमें विविधता के बावजूद एकता हो। फ़िर हम क्यों अलग-अलग गुटों में बंट रहें। ऐसे में आज के समय में हमें और हमारे समाज और व्यवस्था को गांधी के विचारों से बहुत कुछ आत्मसात करने की आवश्यकता है। तभी हम एक बेहतर और सभ्य राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। गांधी की दिनचर्या को अपनाकर समाज एक स्वच्छ और बेहतर पर्यावरणीय संरचना बना सकता है। ऐसे में आज हमें गांधी के जीवन मूल्यों और आदर्शों पर चलने की सख़्त आवश्यकता है। गांधी ने मानव जीवन के लिए ग्यारह व्रत बताएं हैं, जिनपर चलकर बेहतर, सभ्य और सुसंगत राष्ट्र बनाया जा सकता है। उनके वे ग्यारह व्रत सत्य, अहिंसा, अभय, छुआ-छूत मिटाना, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, जात-मेहनत, स्वदेशी और सहिष्णुता है। अगर इन सब का पालन मानव समाज करने लग जाएं तो शायद इस सृष्टि की समस्त समस्याओं का निदान स्वतः हो सकता है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896