ग़ज़ल
कहीं हिन्दुओं का, कहीं बसेरा मुसलमानों का।
मैं तो समझा था यारब, ये शहर है इन्सानों का।
कभी चहकती थी बुलबुलें, दरख्तों की शाखों पे,
अब है हदे निगाह, जंगल, पत्थर के मकानों का।
हर जानिब एक खामोशी है, एक सन्नाटा सा है,
दूर तलक यहां सिलसिला सा है बियाबानों का।
शिकस्ता कश्ती, रूठा माँझी, हाथों में पतवार नही,
मगर हौसला है, रूख बदल देंगे हम तूफानों का।
खुद प्यासे रहे, औरों की तिश्नगी का सहारा बने,
कौन समझ पाया “सागर” दर्द शीशे के पैमानों का।
ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”