ऋषि दयानन्द के गृहत्याग से उनके परिजनों को क्लेश पर विचार
ओ३म्
ऋषि दयानन्द महाभारत के बाद विलुप्त वेदों के पुनरुद्धारक एवं प्रचारक होने सहित सच्ची आध्यात्मिकता का जन-सामान्य को दिग्दर्शन कराने वाले संमाज सुधारक आदि अनेक गुणों से युक्त महापुरुष हुए हैं। वह ऐसे ईश्वरभक्त, योगी, वेदज्ञ, विद्वान तथा वेदों के अनन्य भक्त हुए हैं जिन्होंने संसार में प्रायः सभी मत-मतान्तरों के प्रमुख ग्रन्थों का अध्ययन किया था और वेदों सहित उनकी निष्पक्ष समालोचना की। संसार के लोगों सहित भारतवासियों का यह सौभाग्य है कि उनके प्रयत्नों से लोगों को सृष्टि की आदि में ईश्वर प्रदत्त वेदों का ज्ञान न केवल मन्त्र संहिताओं तक अपितु उनके सत्य अर्थों सहित भी उपलब्ध हुआ। वेद ही ईश्वर प्रदत्त वह ज्ञान है जिसे पढ़कर मनुष्य सृष्टि विषयक अनेक गम्भीर प्रश्नों के उत्तर जान सकता है। इन प्रश्नों में सृष्टि किससे उत्पन्न हुई, कब उत्पन्न हुई, क्यों उत्पन्न हुई, ईश्वर की परिभाषा, ईश्वर का सत्य स्वरूप, ईश्वर के कार्य, ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव सहित जीवात्मा का लगभग सम्पूर्ण ज्ञान मनुष्य जान सकता है। ऋषि दयानन्द ने ऐसे अनेकानेक विषयों को अपने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” में सम्मिलित किया है और देवनागरी लिपि व हिन्दी भाषा इनके उत्तर दिये हैं जिन्हें एक साधारण हिन्दी पठित व्यक्ति भी सरलता से जान सकता है। ऋषि दयानन्द से पूर्व उनके द्वारा उदघाटित अनेक विषयों के उत्तर देश के धार्मिक व सामाजिक कार्यों में संलग्न लोगों को विदित नहीं थे। ऋषि दयानन्द ने न केवल अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर ही दिये अपितु इसके साथ अपने उत्तरों के पक्ष में प्रमाण, युक्तियां व तर्क भी दिये हैं।
ऋषि दयानन्द (1825-1883) को अपनी आयु के चौदहवें वर्ष में सन् 1839 ईसवी की शिवरात्रि के दिन मूर्तिपूजा की सत्यता, इससे ईश्वर की पूजा व उपासना होनें व मूर्ति से की जाने वाली स्तुति, प्रार्थना व उपासना से होने वाले लाभों में संदेह हुआ था। इसके कुछ समय बाद उनकी बड़ी बहिन एवं चाचा जी की मृत्यु होने पर उन्हें मृत्यु के भय ने संत्रस्त किया था और वह वैराग्य की स्थिति में पहुंच गये थे। यही कारण उनके गृह त्याग के बने। हमें विचार आया कि क्या ऋषि दयानन्द की गृह त्याग की घटना टल सकती थी? ऋषि दयानन्द को गृह त्याग इस लिये करना पड़ा था कि उनके माता-पिता ने उन्हें अध्ययन के लिये काशी नहीं भेजा था और इसके विपरीत उनका उनकी सहमति के बिना ही विवाह तय कर दिया गया था जो कि उनके गृहत्याग की घटना के कुछ दिन बाद ही होने वाला था। यदि यहां हम यह विचार करें कि बालक मूलशंकर व बाद में महर्षि दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध इस महापुरुष के माता-पिता अपने विवेक का परिचय देकर उनका विवाह न करते तो ऋषि दयानन्द गृह त्याग न करते। यदि माता-पिता ऋषि दयानन्द को अध्ययन करने काशी भेज देते, उनकी हर बात में सहयोगी होते, उनसे मित्रवत् व्यवहार करते और उनके प्रश्नों व शंकाओं पर स्वयं भी सकारात्मक व्यवहार करते तो ऋषि दयानन्द ने जो गृहत्याग वा अपने माता-पिता व परिवारजनों का त्याग किया था, वह न करते। यह घटना माता-पिताओं के लिये एक पाठ व lesson है। इससे ज्ञात होता है कि माता-पिताओं को अपनी सन्तानों के साथ उनके सबसे निकट मित्र का सा सम्बन्ध बनाना चाहिये और उनकी शंकाओं व प्रश्नों का उचित समाधान न केवल परम्परागत अपितु वस्तुनिष्ठ व तर्क एवं युक्ति के आधार पर करने का प्रयत्न करना चाहिये।
हम यह भी विचार करते हैं कि ऋषि के गृह त्याग करने से उनके माता-पिता सहित उनके छोटे भाई व बहिन पर इसका कष्टदायक प्रभाव पड़ा होगा। माता-पिता अपनी सन्तान के वियोग का दुःख नहीं सहन कर सकते। वह उसके लिये अपने प्राणों तक का त्याग करने के लिये तत्पर रहते हैं। यदि सन्तान किसी कारण से उनसे दूर हो जाये तो उनके जीवन का एक-एक क्षण दुःख के साथ उन्हें स्मरण करते हुए व्यतीत होता है। उन्हें न भोजन अच्छा लगता और न सुख-सुविधाओं की वस्तुयें। उनका जीवन जीवित मनुष्य का जीवन होते हुए भी चिन्ता व दुःख से ग्रस्त व्यक्ति का सा जीवन होता है। सन्तान के प्रेम से सम्बन्धित एक बार एक घटना हमारे नगर में घटी। एक शोध छात्रा हमारे कार्यालय में कार्यरत थी। वह एक आटो रिक्शा से कार्यालय जा रही थी। उसका एक एक्सीडेण्ट हुआ और कुछ देर बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके आटो के पीछे ही हमारी बस चल रही थी। हमने वह पूरी दुर्घटना देखी। उसी दिन सायं उस छात्रा को दिल्ली के एक चिकित्सालय में उपचाराधीन अपने पिता से मिलने जाना था। मृत्यु के कारण कुछ व्यक्ति उस कन्या के पिता को अस्पताल से छुट्टी दिला कर देहरादून लाये परन्तु उन्हें उनकी पुत्री की दुर्घटना की बात नहीं बतायी। घर से 2-3 किमी. पूर्व उन्हें बहुत सम्भल कर उनकी पुत्री की मृत्यु की सूचना दी गई। इसे सुनकल तत्काल उनकी मृत्यु हो गई। राजा दशरथ जी के साथ भी राम के वनगमन पर वियोग के कारण क्लेश की स्थिति बनी और उनकी मृत्यु हो गई। हम इससे सहज अनुमान लगा सकते हैं कि ऋषि दयानन्द के गृहत्याग के बाद उनके माता-पिता की मानसिक व भावनात्मक स्थिति अत्यन्त दुःखद रही होगी। उनके कुछ जीवन लेखकों ने वर्णन किया है कि गृहत्याग के बाद जब उनके पिता ने उन्हें पकड़ लिया था तो उसे डांटते हुए कहा था कि तू अपनी माता को मारना चाहता है। तेरे वियोग में वह अत्यन्त चिन्ताजनक मानसिक व भावनात्मक स्थिति में है। न केवल ऋषि दयानन्द के माता-पिता व भाई व बहिन को इससे दुःख पहुंचा था अपितु उनकी भावी पत्नी और उसके माता-पिता व अन्य परविरजनों को भी भारी क्लेश हुआ था। यदि ऋषि दयानन्द के माता-पिता अपने पुत्र के आध्यात्म विषयक अध्ययन में सहयोगी बन गये होते, तो गृहत्याग की यह घटना टाली जा सकती थी। हम समझते हैं कि हमें इस घटना पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये और अपनी सन्तानों के पालन-पोषण में उनके विचारों व शंकाओं के निवारण में सहयोगी बनना चाहिये। सन्तान के वियोग का दुःख सबसे बड़ा दुःख होता है, इसलिये हम सबको अपनी सन्तानों से मित्रवत् एवं सहयोगात्मक व्यवहार ही करना चाहिये।
हम इस विषय में भी विचार कर सकते हैं कि यदि ऋषि दयानन्द जी गृह त्याग न करते तो क्या वह ऋषि बन सकते थे? कुछ लोगों का विचार यह हो सकता है कि शायद तब वह ऋषि न बन सकते। भविष्य के बारे में कोई व्यक्ति पूरे दावे से कुछ नहीं कह सकता। हो सकता था कि वह न बनते और हो सकता था कि तब भी वह बन सकते थे। ऋषि बनने का कारण उनका अपने उद्देश्य के प्रति किसी प्रकार का समझौता न करना व उसका पूर्ण ज्ञान अर्जित कर उसके लिये अपेक्षित व अनुकूल आचरण करना था। यदि वह काशी जा कर पढ़ते तो सम्भव था कि वह अपने आचार्यों के सम्मुख अपनी अनेक शंकाओं को प्रस्तुत करते और उनसे प्राप्त उत्तरों से सहमत होते या न होते। यदि न भी होते तो भी वह आगे का मार्ग खोजते और उस पर चलते। हमें इस प्रसंग में यह भी स्मरण हो रहा है कि सृष्टि के आदि काल से महाभारत तक आर्यावर्त वा भारत में ऋषि परम्परा चली है। यह सभी ऋषि अपने घरों वा गुरुकुलों में आचार्यां के सान्निध्य से बने थे। इन्हें गृह त्याग करना पड़ा हो, इसकी सम्भावनायें नहीं हैं। अतः घर व आचार्यकुल में रहकर भी मनुष्य विद्वान, योगी व ऋषि बन सकता है, ऐसा हमें लगता है। हमारे मन में महात्मा बुद्ध और स्वामी राम तीर्थ के जीवन की घटनायें भी हैं। हमने सुना है कि महात्मा बुद्ध वैराग्य होने पर अपनी पत्नी व पुत्र को छोड़कर चले गये थे। जब एक बार वह अपनी पत्नी से मिलने आये तो पत्नी ने प्रश्न किया था कि यदि आप मुझे वैराग्य व गृहत्याग का निर्णय बता देते तो क्या मैं आपको वन गमन में सहयोग न करती? इसका अभिप्राय यह था कि अपनी पत्नी यशोधरा को अपने गृह त्याग का निर्णय बता देने पर वह उन्हें उनके निर्णय में सहयोग कर सकती थी। स्वामी रामतीर्थ जी के बारे में कथाओं में हमने सुना है कि वह विवाहित थे। उन्हें वैराग्य हो गया था और उन्होंने भी गृह त्याग किया था। किसी मेले में उन्होंने अपनी पत्नी एवं पुत्र का साथ छोड़ दिया था। उनका उद्देश्य आत्म कल्याण करना था। उन्होंने भी अपनी पत्नी को अपने निर्णय के विषय में बताया नहीं था। इससे उनकी पत्नी को कितनी पीड़ा हुई होगी इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। इतिहास में इस प्रकार की अनेक घटनायें और हो सकती हैं। वेद ऋजु मार्ग पर चलने का संकेत करते हैं। जहां तक सम्भव हो हमें अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए अपने आत्म कल्याण सहित देश के उपकार का प्रयत्न करना चाहिये। यदि गृह छोड़ना ही हो तो परिवार के सदस्यों को इस विषय में बताने व न बताने पर विचार करना चाहिये।
ऋषि दयानन्द से उनके जीवन में उनके माता-पिता, बन्धुगण, वर्ण एवं जाति आदि सहित जन्म स्थान के बारे पूछा जाता था। ऋषि ने कहा है कि यदि मैं अपने परिवारजनों सहित अन्य विवरण बता दूं तो हो सकता है कि यह बात मेरे परिवारजनों को विदित हो जाये। हो सकता है कि मेरे माता-पिता आदि कुछ परिवार जन जीवित हों। यदि उन्हें यह पता चल जाये तो हो सकता है कि वह मेरे पास आयें और मुझे साथ चलने का अनुरोध करें। ऐसी स्थिति में मेरे लिये उचित होगा कि मैं उनके साथ जाऊं और उनकी सेवा करूं। इससे मुझे वह व्याधि लग जायेगी जिससे कि मैं पूर्णतः निवृत्त हो चुका हूं। यदि ऋषि के सम्मुख यह खतरा न होता तो वह अपने माता-पिता आदि का पूरा विवरण बता सकते थे और तब उनके द्वारा बताये विवरण से हमें बहुत लाभ होता जो अब उपलब्ध न होने से हमें पीड़ा होती है।
ऋषि दयानन्द ने गृहत्याग कर अपने माता-पिता के स्नेह व ममत्व से वंचित होने का कष्ट झेला था। यदा-कदा तो उनको उनकी याद आती ही रही होगी। इस पर भी उनका वैराग्य अत्यन्त उच्च कोटि था। वह इससे पीड़ित नहीं हुए, रूके नहीं तथा ज्ञान की खोज में आगे बढ़ते रहे। उन्होंने अन्ततः अपने लक्ष्य को प्राप्त किया और अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती व अपनी अन्तः प्रेरणा से जीवन में अर्जित सम्पूर्ण ज्ञान को संसार के लोगों को देकर महान उपकार किया। सारा संसार आज ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति के सत्य स्वरूप, रहस्यों वा गुण, कर्म व स्वभाव को जानता है। वह मनुष्य के कर्तव्य, उसकी प्राप्ति के साधन, मनुष्य जन्म का कारण व उससे छूटने के उपाय आदि का सत्यस्वरूप व समाधान भी जानता है। यह उनकी विश्व को बहुत बड़ी देन है। इसी के साथ लेख व चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य