कविता

छंदमुक्त काव्य

“छंद मुक्त काव्य”

अनवरत जलती है
समय बेसमय जलती है
आँधी व तूफान से लड़ती
घनघोर अंधेरों से भिड़ती है
दिन दोपहर आते जाते है
प्रतिदिन शाम घिर आती है
झिलमिलाती है टिमटिमाती है
बैठ जाती है दरवाजे पर एक दीया लेकर
प्रकाश को जगाने के लिए
परंपरा को निभाने के लिए।।

जलते जलते काली हो गई है
मानो झुर्रियाँ लटक गई है
बाती और तेल अभी शेष हैं
कभी खूँटी पर तो कभी जमीन पर
लटक, पसर जाती है अपने अंधेरों के साथ
प्रकाश के लिए शुभ को बुलाती है
कुछ फतिंगे भी कुर्बान हो जाते हैं
शायद गिनती है कितने दीए जले होंगे
एकसाथ सबकी दीपावली जो आ गई
मिठाईयाँ पटाखे शोर गुल खुशी
इतरा रही है डी. जे. बजा बज रहा है
और एक कोने में वह भी जल रही है
एक दीया और तीन सौ पैंसठ दिन
राह को दिखाने के लिए
परंपरा को निभाने के लिए।।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ