मुक्तक/दोहा

हक़ीक़त

नहीं शेष संवेदना,रोते हैं सब भाव !
अपने ही देने लगे,अब तो खुलकर घाव !!
स्वारथ का बाज़ार है,अपनापन व्यापार !
रिश्ते रिसने लग गये,खोकर सारा सार !
नित ही बढ़ती जा रही,अब तो देखो पीर !
अपनों के नित वार हैं,बरछी-भाला-तीर !!
हर कोई ख़ुद में लगा,होकर बेपरवाह ।
दर्द,व्यथा,ग़म,वेदना,देख निकलतीआह ।।
जीवन मुरझाने लगा,खोकर निज उल्लास ।
सबके भीतर मुर्दनी,बाहर केवल हास ।।
मूल्य सिसकते नित्य ही,पतनशील है सोच ।
ऊंचे चिंतन पैर में,आई है अब मोच ।।
मत रोओ,यह व्यर्थ है,कौन सुने आवाज़ ।
अपनी ढपली थाम सब,बजा रहे निज साज़।।
आशाएं धूमिल हुईं,टूटा सब विश्वास ।
गुज़र रहे रो-रो सभी,वर्ष,दिवस औ’ मास ।।
डॉ. नीलम खरे

डॉ. नीलम खरे

डॉ.नीलम खरे आज़ाद वार्ड, मंडला (म.प्र) -481661