कविता

#मन_गौरैया#

#मन_गौरैया#

तन की कोठरी में
चहकती फुदकती
मन गौरैया
कभी पंख फड़फड़ाती
कभी ची- ची करती
भर जाती पुलक से
नाचती देहरी के भीतर।

उड़ना चाहती पंख पसार
उन्मुक्त गगन में
देखना चाहती ये
खूबसूरत संसार….

नहीं संज्ञान उसे,
इस लुभावने संसार के
पथरीले धरातल,
और छद्म रूप धरे,
मन गौरैया के पर कतरने
ताक में बैठे शिकारियों का…

हर बार कतरे जाते
सुकोमल पंख
कभी मर्यादा, कभी प्रेम,
कभी संस्कार, कभी परम्परा
की कैंची से!!!

और फिर!
अपने रक्तरंजित परों को
फड़फड़ाना भूल वो नन्हीं गौरैया
समेट कर अपना वजूद,
दुबक जाती अपने
भीत आँखो को बन्दकर
अपनी अमावस सी
अँधेरी कोठरी में।

फिर एक किरण आशा की
करती उजियारा
धीरे -धीरे मन गौरैया
खोलती हैं आँखें
अपने उग आये नए
परों को खोलती
अपने दुबके वजूद को
ढीला छोड़ दबे पांव
शुरू करती फिर फुदकना।

पर पंख कतरने का भय
नहीं छोड़ता पीछा..
और उस भय से
डरी-सहमी गौरया
आहिस्ता-आहिस्ता
हो जाती है विलुप्त!!

अंततः रह जाता है सिर्फ
अवशेष अंधेरी कोठरी का!!
…………कविता सिंह………..

कविता सिंह

पति - श्री योगेश सिंह माता - श्रीमति कलावती सिंह पिता - श्री शैलेन्द्र सिंह जन्मतिथि - 2 जुलाई शिक्षा - एम. ए. हिंदी एवं राजनीति विज्ञान, बी. एड. व्यवसाय - डायरेक्टर ( समीक्षा कोचिंग) अभिरूचि - शिक्षण, लेखन एव समाज सेवा संयोजन - बनारसिया mail id : samikshacoaching@gmail.com