मुमताज
मुमताज़
हां…. मुमताज़ ही तो
कहा था तुमने मुझे
कितनी खुश हुई मैं सुनकर
ताजमहल जैसी कोई याद
बनेगी मेरे लिए भी
अमर हो जाउंगी जिसके
दर ओ दीवार में
सदा के लिए मैं…..
याद रखेंगी ये दुनियां मुझे
कई सदियों तक….
मगर मैं ये कहाँ जानती थी
वो ताजमहल बनेगा
मेरे ही ख्वाबो की नींव पर
जिसकी दीवारें रंगी जाएंगी
मेरे ही अरमानो के खून से
यमुना के पानी को
बरकार रखेंगी ये आँखें
और उसी की तह में
दफनाया जाएगा इक दिन मुझे ही।
आगरा में यह शेर चलता है-
ताजमहल तो क्या उससे भी अच्छी बिल्डिंग बनवा दूँगा
मुमताज तो मरी गढ़ी थी, तुझको जिन्दा गढ़वा दूँगा