गीतिका/ग़ज़ल

नादान बहुत था

जिससे मिलने के लिए मैं परेशान बहुत था,,
उसके मिलने का ढंग देख मैं हैरान बहुत था।
चाहतों के भंवर में फंस के डूब ही जाता मैं,,
मुझे डुबाने हेतु उसके पास सामान बहुत था।
वो जब-जब मिला मतलब से ही मिला मुझसे,
समझ ना पाया ये मेरा दिल नादान बहुत था।
दिल से आखिर वो शख्स गरीब ही निकला,
सोने,चांदी,रुपयों से भले ही धनवान बहुत था।
अपना समझकर गया था उसको गले लगाने,
पर उसके अंतस में कांटों का मैदान बहुत था।
अच्छा ये हुआ कि बात दिल की मैं कहा ही नहीं
कि फासला भी हम दोनों के दरमियान बहुत था।
— आशीष तिवारी निर्मल 

*आशीष तिवारी निर्मल

व्यंग्यकार लालगाँव,रीवा,म.प्र. 9399394911 8602929616