धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

प्रतिदिन स्वाध्याय सबके जीवन का आवश्यक अंग होना चाहिये

ओ३म्

मनुष्य की आत्मा अनादि, नित्य, अजर, अमर, सूक्ष्म, ससीम, जन्म-मरणधर्मा, कर्म के बन्धनो में बंधी हुई, वेद ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार कर्म करते हुए मोक्ष को प्राप्त होने वाली एक चेतन सत्ता है। चेतन सत्ता में ज्ञान एवं प्रयत्न गुण होता है। जीवात्मा एकदेशी होने से अल्पज्ञ होता है। इसको सुख मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान प्राप्ति के मुख्य साधन तो माता, पिता आचार्य होते हैं। इसके साथ ही मनुष्य स्वाध्याय द्वारा धर्म-अधर्म तथा कर्तव्य अकर्तव्य सहित अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश सहित अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रकाश है। ईश्वर का सत्यस्वरूप तथा उपासना क्यों, किसकी व कैसे करनी चाहिये, इसका बोध भी ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से होता है। अतः वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन सहित अन्यान्य वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन से मनुष्य अपने ज्ञान में वृद्धि कर निःशंक वा निभ्र्रान्त हो सकता है। ऐसा करना इस लिये आवश्यक है कि उसे अपने धर्म व कर्तव्य का बोध हो सके और वह अज्ञानी, चतुर, चालाक व स्वार्थी लोगों से धर्म पालन विषय में ठगे जाने से बच सके। उसका जीवन सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग का एक उदाहरण बन जाये और वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलता हुआ अपनी आत्मा की उन्नति करने सहित जन्म-जन्मान्तरों में कल्याण को प्राप्त हो सके।

स्वाध्याय शब्द स्व’ अर्थात स्वयं का अध्ययन करने के कहते हैं। स्व अर्थात् अपनी आत्मा और शरीर का ज्ञान हमें माता-पिता तथा आचार्य दे सकते हैं। वर्तमान में सभी माता-पिता आचार्य इतने ज्ञानी नहीं है कि वह अपनी सन्तानों शिष्यों की इस आवश्यकता की पूर्ति कर सकें। इसके लिये आर्यसमाज का सदस्य बनकर और वहां रविवार को होने वाले सत्संग, वार्षिकोत्सव तथा आर्यसमाजों की सभाओं संस्थाओं सहित गुरुकुलों में होने वाले उत्सवों में भाग लेकर वहां विद्वानों के उपदेशों को सुनकर तथा विद्वानों से शंका-समाधान करके ईश्वर, आत्मा धर्म-अधर्म, उपासना, अग्निहोत्र यज्ञ तथा सामाजिक नियमों आदि सभी प्रकार का ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। कुछ विषय जटिल होते हैं जिसके लिये हमें उन विषयों के ग्रन्थों को पढ़ कर समझना होता है। स्वाध्याय में हम वेदों सहित योग्य विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन कर विद्वान बन सकते हैं और निभ्र्रान्त होकर अपने अन्य बन्धुओं में भी ज्ञान का प्रचार व प्रसार कर सकते हैं। आर्यसमाज के सक्रिय एवं स्वाध्यायशील सदस्यों का धर्म अधर्म तथा कर्तव्य-अकर्तव्य सहित धार्मिक एवं सामाजिक विषयों का ज्ञान अन्य समानधर्मी संस्थाओं से अधिक होता है। इसका कारण यह है कि आर्यसमाज में प्रत्येक सप्ताह विद्वानों के प्रवचनों सुनने को मिलते है और निजी जीवन में वेदादि अनेक ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय किया जाता है। अन्य मतों व संस्थाओं में अपने ही धर्म गुरुओं की पुस्तकों का अध्ययन कराया जाता है। उन ग्रन्थों में लिखी बातों की सत्यासत्य की परीक्षा नहीं की जाती। उनमें जो सत्य व असत्य लिखा है, उसे ही स्मरण करना व मानना होता है। शंका-समाधान को वहां बुरा माना जाता है। इस कारण अन्य मतों के अनुयायी अनेक प्रकार के अज्ञान, अन्धविश्वासों व पाखण्डों से युक्त होते हैं। आर्यसमाज का नियम ही है कि सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। अतः आर्यसमाज में मनुष्य को सत्य का ज्ञान प्राप्त करने की सबसे अधिक सुविधा है। ईश्वर का सच्चा तर्कसंगत स्वरूप केवल वेदों के विद्वान उनके अनुयायी आर्यसमाज के अनुयायी ही जानते, मानते उसका प्रचार करते हैं। वेद वर्णित अग्निहोत्र-यज्ञ को भी आर्यसमाज के विद्वानों ने ही तर्क और युक्ति की कसौटी पर कसकर अपनाया है व इसका प्रचार भी वह करते हंै। यज्ञ करने वाले मनुष्य को उसके लाभों का स्वयं अनुभव करने व जानने का अवसर मिलता है और वह यज्ञ करके सन्तुष्ट व प्रसन्न देखे गये हैं।

स्वाध्याय से मनुष्य अज्ञान से मुक्त होता है ज्ञानी बनता है। अज्ञान दूर होने से मनुष्य दुराचार की हानियों को जानकर उनसे भी पृथक होता है। वह सदाचार को अपना साध्य मानकर उसके अनुरूप आचरण करता है। वेद व वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय से मनुष्य ईश्वर, माता-पिता, आचार्यों सहित देश व समाज का भक्त व हितकारी बनता है। स्वाध्याय मनुष्य को सच्चे ईश्वर का उपासक भी बनाता है। स्वाध्याय करने वाला अपने सभी मित्रों, सम्बन्धियों तथा सामजिक बन्धुओं के प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनसे सत्य का व्यवहार करता है। इससे समाज में अन्धविश्वास एवं पाखण्ड दूर होने के साथ समाज में किसी प्रकार का भेदभाव व मिथ्या परम्परायें उत्पन्न नहीं होती तथा जो अन्ध-परम्परायें अस्तित्व में होती हैं वह स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान व आत्म-चिन्तन की प्रक्रिया से दूर हो जाती हैं। स्वाध्यायशील मनुष्य समाज के सभी लोगों का उनकी सभी समस्याओं के निवारण में मार्गदर्शन कर सकता है। मनुष्य अपने स्वास्थ्य और व्यवसाय की समस्याओं को किस प्रकार से हल कर सकता है, स्वाध्यायशील व्यक्ति इसका भी सुझाव अपने साथियों को दे सकता है। ज्ञान एवं पुरुषार्थ से युक्त मनुष्य कोई भी कार्य करेगा तो उसमें उसको निश्चित रूप से सफलता मिलेगी। अतः स्वाध्याय से अनेक लाभ मनुष्य प्राप्त कर सकता है। जीवन भर स्वाध्याय से जुड़े रहना चाहिये। सभी मनुष्यों को एक निश्चित समय प्रतिदिन, दो-तीन घण्टे या अधिक, स्वाध्याय में लगाने चाहिये। इसके शुभ परिणाम शीघ्र सामने आते हैं।

स्वाध्याय क्यों करना चाहिये? स्वाध्याय अज्ञान को दूर करने तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये किया जाता है। स्वाध्याय आत्म-चिन्तन को भी कहते हैं। स्वाध्याय और सन्ध्या में परस्पर समानता है। स्वाध्याय में हम अनेक विषयों का प्रामाणिक अध्ययन पुस्तकों तथा आत्म-चिन्तन व मनन के द्वारा करते हैं। सन्ध्या ईश्वर के ध्यान चिन्तन-मनन को कहते हैं। स्वामी दयानन्द जी ने सन्ध्या की विधि की पुस्तक भी लिखी हैं। इसमें हमें आत्मा और परमात्मा विषयों का वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित विद्वानों के प्रवचनों व उनसे वार्तालाप से ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके अनुरूप ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म् तथा गायत्री मन्त्र का जप करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से सम्बन्धित वेदमन्त्रों के अर्थों पर विचार करते हुए ईश्वर के स्वरूप में प्रविष्ट व उसमें स्थिर होने का प्रयास करते हैं। ऐसा करने से आत्मा पर पड़े अज्ञानरूपी मल, विक्षेप व आवरण कटते हैं और आत्मा में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है। अभ्यास करते हुए ईश्वर के ध्यान में अपने मन को स्थिर रखने का प्रयत्न करते हुए मन की एकाग्रता की स्थिति के अनुरूप लाभ होता है। ऐसा करने से ईश्वर का प्रत्यक्ष हो सकता है। वेद में उपासक ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करते हुए कहता है कि वह महानतम पुरुष ईश्वर को जानता है। वह ईश्वर सूर्य के समान प्रकाशमान है तथा अन्धकार से सर्वथा पृथक दूर है। उस ईश्वर को जानकर ही हम अपनी मृत्यु से पार मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकते हैं। अतः स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान के क्रियात्मक रूप को सन्ध्या कह सकते हैं। स्वाध्याय से हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना होता है। इस ज्ञान के क्रियात्मक उपयोग वा आचरण को ही सामाजिक नियमों का पालन कहा जाता है। ऐसा करने से मनुष्य की सामाजिक उन्नति होती है।

 स्वाध्याय के महत्व व लाभ का उदाहरण देना हो तो हम आर्यसमाज के एक सदस्य के रूप में दे सकते हैं। एक व्यक्ति आर्यसमाज जाता है। वहां वह सन्ध्या एवं अग्निहोत्र यज्ञ करता है। भजन सुनता, सामूहिक प्रार्थना सुनता व करता है तथा विद्वानों के प्रवचनों को सुनकर उन पर चिन्तन व मनन करता है। इसके साथ ही वह वहां से सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को लेकर उनका अध्ययन करता है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से उसका अज्ञान दूर हो जाता है। उसके बाद वह उपनिषद, दर्शन, वेद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों सहित आर्य विद्वानों के विविध विषयों के ग्रन्थों का अध्ययन करता है। ऐसा करने से उसकी अविद्या दूर हो जाती है। वह ऐसा करके एक अच्छा वक्ता व लेखक भी बन सकता है। यज्ञों व संस्कारों को कराने वाला पुरोहित भी बन जाता है। वर्तमान में वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि सभी ग्रन्थ हिन्दी में अनुदित व टीकाओं सहित मिलते हैं। अतः हिन्दी भाषी लोगों को शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने में सबसे अधिक सुविधा है। ऋषि दयानन्द ने ही शास्त्रीय ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद व भाष्य करने की परम्परा को जन्म दिया है। स्वाध्याय कर मनुष्य धर्म, अर्थ व काम आदि साधनों से मोक्ष की प्राप्ति की पात्रता को प्राप्त कर उसके निकट पहुंच सकता है। यही जीवन का लक्ष्य भी है जिसे मनुष्य मुख्यतः स्वाध्याय से प्राप्त कर सकता है। जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में भी स्वाध्याय से लाभ होता है। अतः हमें स्वाध्याय करने में कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने बताया है कि ज्ञान की प्राप्ति होने पर मनुष्य को असीम सुख की प्राप्ति होती है। ज्ञान से प्राप्त सुख की तुलना हम अन्य साधनों से प्राप्त सुखों से नहीं कर सकते। हम जो स्वादिष्ट पदार्थों का भोग करते हैं, उससे रोग का भय होता है। अनुचित कार्यों से धन कमायेंगे तो सरकारी दण्ड का भय होता है। सच्चाई से भी धन कमाते हैं तो चोरों का भय होता है परन्तु ज्ञान कितना भी अर्जित कर लें, उसे हमने कोई छीन नहीं सकता। ज्ञान को तो शिष्य बन कर ही प्राप्त किया जा सकता है जिससे गुरु व शिष्य दोनों का कल्याण होता है। अतः स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान प्राप्ति का प्रयास सभी स्त्री व पुरुषों को करना चाहिये। इससे स्वाध्याय करने वालों का सर्वविध कल्याण होना सम्भव है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य