धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मनुष्य जीवन में अनुशासन सर्वोपरि इससे ही प्रगति संभव

मनुष्य जीवन में अनुशासन का बहुत महत्व है। इससे ही चहुंओर प्रगति और प्रतिष्ठा का मुकाम हासिल किया जा सकता हैं। अनुशासन ही सर्वोपरि है। किन्ही आवश्यक निर्धारित नियम के पालन करने व्यवहार का नाम अनुशासन हैं। शास् का अर्थ है शिक्षा आज्ञा आदेशअनु का अर्थ है पीछे चलना, अनुसार चलना। अंग्रेजी भाषा में अनुशासन को डिसिप्लीन कहते हैं। डिसिप्लीन शब्द डिसाइपल शब्द से बनता है जिसका अर्थ भी शिष्य या सीखने वाला है। मनुष्य में मानवता व अनुशासन का होना बहुत जरूरी है। अनुशासन के बिना परिवार, समाज में शांति एवं सुख का अनुभव नहीं कर सकते हैं। जिस समाज में जितने अनुशासन प्रिय, न्याय प्रिय और आत्मसंयमी व्यक्ति होगें वह समाज सदा उन्नति की ओर अग्रसर होता हुआ अन्य समाजों का पथ प्रदर्शक बन जाता हैं। और इससे ही राष्ट्र की उन्नति होती हैं। अनुशासन संबंधी नियम तो समय कार्य एवं आवश्यकता के अनुसार मनुष्ययों द्वारा नियत किये जाते है और कुछ धार्मिक दृष्टि से शास्त्रज्ञ से पालन करने पड़ते हैं। मानव समाज में दोनों प्रकार के नियम की पालना करना अनिवार्य हैं। अनुशासनहीन जीवन उस नदी वेग के समाज होता है जो अपने-अपने प्रबलता से नदी किनारों को तोड़ता हुआ आस-पास वृक्षों एवं जन-जीवन को समूल नष्ट कर देता हैं। समाज में सुखी रहने के लिए अनुशासन आवश्यक हैं। करने योग्य कर्मो को करना एवं न करने योग्य कर्मो को त्यागना ही अनुशासन हैं। ऐसे व्यक्तियों को शिष्ट व्यक्ति कहा जाता हैं। और आचार-विचार को शिष्टाचार कहा जाता हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि –
  ‘ यज्ञोदानं तप: वर्ग॔ं नत्यान्य मिलि मतग ।
    यज्ञो या तपश्चैव पावनानि मनीषिणामह ।। ‘
इसका अर्थ यह है कि यज्ञ दान और ये मनुष्यों को पवित्र करने वाले कर्म हैं। इन कर्मों को नहीं छोड़ना चाहिए ।
अपने वर्णके अनुसार जो पूजा-पाठ, उपासना संध्या, तर्पण, अतिथि सेवा, देव पूजा की जाती है वह तप कहलाता हैं। अन्य भी तप की अनेक विधियां हैं। अनुशासन बचपन से ही सिखाया जाता है। माता बालक की प्रथम गुरू होती है वे बेखुबी उत्तम संस्कार, अनुसंधान को सिखाती हैं। माता संस्कार को बालक के मस्तिष्क में उत्पन्न करती वे अमिट होते हैं। माता बालक को ईमानदारी, सदाचारी, साधु गृहस्थी चोर डाकू बना सकती है। यह माता के ज्ञान पर निर्भर हैं। उसकी प्रथम पाठशाला घर ही होता है। बालक को उत्तम मार्ग पर चलाने एवं दूषित मार्ग के बचाने के लिए आवश्यकता हो तो ताड़ना भी देनी चाहिए। अतः माता पिता और गुरूओं का आचरण उसके समक्ष आदर्श स्वरूप होना चाहिए। आज यह खेद की बात है कि प्रत्येक समाज, जाति, धनी व निर्धन वर्गों में विभाजित होता जा रहा हैं। मनुष्य केवल अपने स्वार्थ तक सीमित हो गया हैं। मनुष्य की उत्तमता वित्तीय क्षमता ही हैं। धनिक धनिक को ही सहयोग करता है। न्याय व्यवस्था धनक आधार पर टिकी है। निर्धन, महिलाएं, विधवाएं, दहेज, तलाकशुदा हत्या व आत्महत्या जैसे कृत्यों पीड़ित दिखाई दे रही है। सज्जन व्यक्ति दुर्जनों द्वारा पीड़ित व अपमानित होते हैं। उनके उचित कार्य भी संबंधित अधिकारियों द्वारा समय पर सम्पादित नहीं किये जाते हैं। इतना ही नहीं अपितु वृध्द अशक्त माता-पिताओं आधुनिक समाज में भार समझा जाता हैं । आज की शिक्षा आचार हीन हैं। हम संतो आदि के प्रवचन सुनते हैं स्वयं भी गीता रामायण आदि सद्दग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं तदनुसार भाषण भी देते है परंतु सरल से सरल उपदेश का भी नहीं अनुसरण करते हैं। सामाजिक नीति, राजनीति और औद्योगिक नीति में आकाश पाताल का अंतर है। समाज शब्द का अर्थ है सामान विचार, नीति गुण धर्म, और नियमों का पालन करने वाले व्यक्तियों का समूह। समाज राजपद, धनबल, और शारीरिक पारिवारिक बल से बढ़कर हैं। आज गरीब जन अत्यंत मानसिक खिन्नता एवं उपेक्षापूर्ण जीवन करते है। मेरा समाज की युवा पीढ़ी से निवेदन रहेगा कि वे समाज सुधार के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करें जिससे दहेज प्रथा, महिला उत्पीड़न, वृध्दजनों, माता-पिता की उपेक्षा पर नियंत्रण हो सके। विवाह आदि सामाजिक आयोजनों में,उत्सवों में मैरिज होम, शिष्ठमक, डीजे, युवक-युवतीयों द्वारा अशिष्ट अभिनय, आदि धन व समय की बर्बादी साथ ही अपवित्र भोजन से अनेक रोगों की उत्पत्ति की संभावना बढ़ती हैं तथा सामान्य आर्थिक स्थिति वाले लोगों की स्थिति में भ्रम प्रकाशित हो जाता हैं। ऐसी कुप्रथाओं पर अंकुश लगना चाहिए। इस प्रकार मानव समाज में अनुशासन की महत्ती आवश्यकता हैं। अनुशासन से ही मानव मानव कहलाने का अधिकारी होता हैं। जीवन तो पशु-पक्षी भी जीते हैं परंतु उनमें बलवान निर्बलों को अक्षण करते हैं। यदि मनुष्य भी ऐसा जीवन जीते है तो मनुष्य और पशुओं में केवल आकृति का ही अंतर रह जायेगा। अत: मनुष्य मानवीय गुणों को धारण कर परोपकारमय जीवन अनुशासन पूर्वक जीयें इन्ही में मानव जीवन सार्थक है।
 “सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कशिचद्द दुख भागभवेत् ।। “
— सूबेदार रावत गर्ग उण्डू 

रावत गर्ग ऊण्डू

सहायक उपनिरीक्षक - रक्षा सेवाऐं, स्वतंत्र लेखक, रचनाकार, साहित्य प्रेमी निवास - RJMB-04 "श्री हरि विष्णु कृपा" ग्राम - श्री गर्गवास राजबेरा, पोस्ट - ऊण्डू, तहसील -शिव, जिला - बाड़मेर 344701 राजस्थान संपर्क सूत्र :- +91-9414-94-2344 ई-मेल :- rawatgargundoo@gmail.com