मौसमी गजल
सारी राहें रोक रहा हैं, एक दीवार बना कुहरा है ।
हर खिड़की पर ,दरवाजे पर,सर्द हवाओं का पहरा है।
ओस के आँसू टपक रहे हैं, खिलें गुलाबों की कलियों से,
इनके दिल में भी मुझ जैसा,कोई दर्द बहुत गहरा है।
सर्द हवायें चूम रही हैं ,मेरे तन को, रोको इनको ,
चुंबन से भी दर्द हो रहा, मेरे दिल का घाव हरा है ।
तुम बिन,काटे नही कट रहीं, यह विरहा की ठंडी रातें,
तुमसे जब हम दूर हुए थे,वक्त वहीं अब भी ठहरा है ।
निष्ठुर ठंडक तू क्या जाने! मेर मन की व्यथा कथा को,
मन मरुथल सा सूख रहा है,और नैनों में नीर भरा है ।
————-© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी ‘गंजरहा’ २४/१२/१९, गोरखपुर