गीतिका/ग़ज़ल

गजल

ख़फा ख़फा से हैं सब अपने बेगाने मेरे
यही इनआम की है मुझको अदा ने मेरे

इश्क उसने भी किया है वो मजे लेते हैं
वो तो बरबाद किया मुझको वफ़ा ने मेरे

दिया रकीब को कुछ ऐसे तआऱुफ मेरा
शहर में दो चार ही हैं ऐसे दिवाने मेरे

ख़त उनके जला आया तर्क उल्फत की
मिली तस्वीर तेरी फिर भी सिरहाने मेरे

मेरी तकरीर से अब मुब्तला नहीं होते
हो गए दोस्त सभी अब तो सयाने मेरे

— समर नाथ मिश्र