भूल
पिछले कई सालों से लखनऊ आना जाना हुआ है, मगर कभी गुरूजी से नही मिल सका। मैंने सोंचा, आज मैं गुरूजी से मिलकर जाऊँगा। गुरूजी हमें पीएमटी की तैयारी के दिनों में प्राणि विज्ञान पढ़ाते थे और, बहुत ही सहृदय और नियमों के पक्के, उदारवादी चरित्र। मैं उनका सबसे प्रिय शिष्य था। वह लखनऊ के ही एक प्रतिष्ठित डिग्री कालेज में प्रवक्ता थे, परिवार के नाम पर मात्र एक कन्या थी। पत्नी का देहावसान कई वर्ष पहले हो गया था। गुरूजी इन दिनों विभागाध्यक्ष हैं और कोचिंग पढ़ाना तो कब के छोड़ चुके हैं।
घर ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नही हुई, गुरूजी ने ही दरवाजा खोला, गुरूजी के चेहरे पर बुढ़ापे के चिन्ह उभरने शुरू हो चुके थे, गुरूजी ने बड़ी सहृदयता से स्वागत किया, गुरुजी बताने लगे अब सप्ताह में दो लेक्चर लेता हूँ, महाविद्यालय में। पीएमटी की कोचिंग पढ़ाना छोड़ दिया है, अब कोचिंग मार्केट से शिक्षा और गुरु शिष्य के संबंध गायब हो गये हैं, सिर्फ व्यापार शेष रह गया है, और फिर अब शरीर में वह ऊर्जा भी नही है, तुम जैसे छात्र ही मेरी कमाई हैं, बस यही संतुष्टि हैं।
इसी क्रम में हम दोनों के वार्तालाप को भंग करते हुए एक किशोरी का प्रवेश हुआ, नानाजी ! चाय।
गुरुजी ने परिचय कराया, बेटा ! यह मेरी नातिन है राधिका। किशोरी ने दुहाराया- ‘राधिका अकरम’ मेरे माथे पर प्रश्नवाचक रेखाएं उभरी, साथ में ही गुरूजी के चेहरे पर एक अतीत की पीड़ा।
गुरू जी ने बताना शुरु किया-.यह लड़की मेरी उसी अभागन कन्या की अंतिम पहचान है, जो अब नही है, बाकी तो तुम्हे पता है। मेरी लड़की की यह इच्छा थी कि इसके नाम के साथ इसके बाप का नाम भी एक काले अतीत की तरह जुड़ा रहे, ताकि यह अपनी माँ की तरह कोई भावानात्मक अपराध न कर बैठे।
मैने उस विषय पर ज्यादा बात नही की क्योंकि गुरूजी भावुक हो रहे थे, वापस आते वक्त जब मैं ट्रेन में बैठा तो मुझे सब याद आने लगा। गुरूजी के साथ ही कोचिंग पढ़ने आती थी, गुरूजी की इकलौती कन्या ‘अक्षता’, पढ़ने लिखने में काफी कुशाग्र थी, रूप रंग तो ऐसा की छू लो तो गंदी हो जाये, उसी कोचिंग क्लास में एक लड़का पढ़ने आता था, ‘अकरम’। लंबा छरहरा कद, गौरांग मुख और पढ़ाई लिखाई में भी तेज।
कोचिंग क्लास में ही अक्षता और अकरम के नयन उलझे, नजदीकियां बढ़ी और प्यार परवान चढ़ने लगा। गुरूजी को जब पता चला तो उनके पैरो के नीचे की जमीन गायब हो गई। उन्होंने अक्षता को बहुत समझाया, अकरम को भी समझाया, जाति धर्म की दुहाइयाँ दीं, मगर किशोरवय का अपरिपक्व प्रेम पूरी तरह से अंधा होता है। मैं अकरम और अक्षता दोनों का कामचलाऊँ दोस्त था, गुरूजी ने मुझसे कहा कि, तुम ही समझाओ इन दोनों को!, मैंने कोशिश की, मगर दोनों सुनने को तैयार नही थे। अकरम मेरे ही जिले का रहने वाला था। मैंने गुरूजी के कहने पर अकरम के घर वालों को पूरी बात से अवगत कराया, मगर उन लोगों ने कहा कि अगर लड़की धर्म परिवर्तन कर लेगी तो हमें कोई दिक्कत नही है, मगर हम भी अकरम को समझाने की कोशिश करते हैं।
गुरुजी ने हर जगह से हारने के बाद अक्षता की कोचिंग छुड़वा दी, और अकरम ने भी दो चार क्लासेज आने के बाद कोचिंग आना बंद कर दिया।
सब कुछ सही चल रहा था, मगर एक दिन गुरूजी क्लास में नही आये, बल्कि अपनी गाड़ी भेजकर मुझे अपने घर बुलवाया। मैं पहुँचा तो देखा कि गुरूजी बहुत परेशान मुद्रा में बैठे हुए थे, आँखे देखकर लग रहा था कि रात भर सोये नही हैं। पहुँचते ही रोने लगे, बोले-अक्षता ने कहीं का नही छोड़ा, वो कल सुबह से गायब है, मुझे लगा आ जायेगी, कहीं बाहर गई होगी, मगर वो अब तक न आई। मुझे लगता है वो अकरम के साथ भाग गई। मैं कौन सा मुँह दिखाऊँगा संसार को ?
गुरूजी ने कहा कि, तुरंत मुझे अकरम के घर चलना है, मेरे साथ चलो।
हम लोग शाम ढलते-ढलते अकरम के गाँव पहुँच गये, घरवालों ने साफ मना कर दिया-, हमें नही पता आपकी लड़की कहाँ है ?मेरा लड़का भी गायब है। अंततोगत्वा न चाहते हुए गुरूजी ने पुलिस का सहारा लिया और जब पुलिस ने अकरम के घर की तलाशी ली तो अक्षता उसी घर से बरामद हुई, दुल्हन के लिबास में।
अक्षता ने दो टूक जवाब दे दिया, मैं बालिग हूँ, मेरे पास सारे कागजात हैं, मैंने पूरे होशोहवास में धर्मपरिवर्तन करके निकाह किया है, इतना कहकर वो घर के अंदर चली गई, पुलिसवालों ने भी कह दिया कि इसमें कुछ नही हो सकता। गुरूजी वही सिर पकड़़कर बैठ गये। किसी तरह मैंने उन्हे सम्हाला।
उसके बाद गुरूजी चुपचाप सिर नीचे करके आते थे और क्लास लेकर चले जाते थे, सबजेक्ट कंपलीट करने के बाद गुरूजी कभी कोचिंग सेंटर नही आये। गुरूजी भी अक्षता के कृत्य से इतना क्षुब्ध थे कि उन्होंने अक्षता को कानूनन अपनी सारी संपत्ति से बेदखल कर दिया। गुरूजी से मैं प्रायः, कभी फोन पर, तो कभी घर जाकर हालचाल लेता रहा।
एक साल बाद मैंने भी लखनऊ छोड़ दिया और मेरठ के लिए पलायन कर गया। साल भर बाद जब मैं वापस घर गया तो अकरम मिल गया, बोला-भाई ! जिंदगी बड़ी उलझन में है, घंटे भर के लिए घर चलते तो बड़ा अच्छा रहता। मैं अकरम के साथ चला गया, दरवाजे पर पहुँचते ही अकरम की अम्मी मिल गईं, बैठाने के बाद उन्होंने अपनी बात कहनी शुरू की- बेटा ! ये लड़की हम लोगों को कहीं का नही छोड़ेगी, किसी दीन का नही रक्खेगी, अकरम की मति मारी थी, अच्छे अच्छे रिश्ते आ रहे थे, खुद तो पढ़ाई लिखाई चौपट ही की, अपने मोह के मायाजाल मे फंसाकर अकरम को भी बरबाद कर डाला, मगर अब क्या ?
मैंने पूछा-चच्ची ! हो क्या गया ये तो बताओ ?
अकरम की माँ- बेटा! यह हम लोगों से छुपकर मंदिर जाती थी, बाहर जाने की मनाही हो गई तो अब घर में ही पूजा शुरू कर दिया, अब तुम्ही बताओ ये कुफर मेरे घर मे हो रहा है तो अंजाम भी हम लोगो को ही मिलेगा, मैं चुपचाप सब कुछ सुनता रहा।
अकरम की माँ के बाद जब अक्षता मिली तो उसने अपनी बात बताई कि, यहाँ पाबंदियां बहुत हैं, अकरम भी घर वालों का साथ लेता है, एक बार मार्केट गई थी, बहुत दिन बाद मंदिर दिखा तो बचपन की आदत, मैंने सर झुका लिया, उस पर बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा हुआ, बात बात पर ताना मिलता है, तुमने अकरम को बरबाद कर दिया। आत्मशांति के लिए ईश्वर को याद करूँ तो अलग दिक्कत, अब बचपन से जिन भगवान की पूजा की, जिनको देखा वही याद आते हैं., धर्मपरिवर्तन मेरी मजबूरी थी, मगर जो बचपन से है, उसे बदलना मुश्किल होता है, मैं यहाँ अपने आपको सहज नही महसूस करती, अब मुझे घुटन सी होने लगी है।
मैंने दोनो पक्षों की बातें सुनी, निष्कर्ष यह निकला की सब कुछ जल्दबाजी में बिना सोच समझे हुआ है, उसी का परिणाम है ये सब।
मैंने चलते वक्त अकरम से कहा कि उसने तुम्हारे लिए सब कुछ छोड़ा है, उसका ध्यान रखना !
मगर शायद अकरम के लिए अक्षता में कुछ शेष नही था और न ही अब कुछ नया था। सुनने में आया कि एक दिन अकरम ने तलाक देकर अक्षता को घर से निकाल दिया है।
अक्षता ने भी अपने बाप के घर जाना उचित न समझा, वह लखनऊ वापस आ गई और किराये के कमरें में रहने लगी, एक दिन अक्षता ने ही मुझे फोन किया औरा बताया कि अकरम ने अंत में अपने घरवालों का ही पक्ष लिया, उसने यह भी बताया कि वह गर्भवती है।
कुछ दिन बाद पुनः अक्षता का फोन आया तो उसने बताया कि उसे बच्ची हुई है, मगर इस बार वह पहले से भी निराश लग रही थी, उसकी बातों से लग रहा था कि वह जीवन से बहुत निराश है। उसने सिर्फ इतना कहा कि मेरी एक भूल ने मुझे अपनी नजरों मे तक गिरा दिया। मुझे कहीं का नही छोड़ा। मैं जीना नही चाहती। मैंने उसे समझाया भी, मगर वो शायद बहुत अवसाद में थी।
कुछ महीनो बाद एक दिन गुरूजी का फोन आया-, बहुत दुखी थे, शायद रो रहे थे ! बोले, बेटा ! अक्षता ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। मेरे लिए एक अंतिम पत्र और एक बच्ची छोड़ के गई है।
उसने स्वीकार किया कि उससे बहुत बड़ी भूल हुई थी।
काश! मेरी बच्ची को इस भूल का अहसास पहले हो जाता।
हाँ ! और वह अपनी बच्ची का नाम भी निर्धारित कर गई है, वो नाम बुरा है, वह नाम मुझे हर बार पीड़ा देगा, मगर मैं वही नाम रक्खूँगा।
और हाँ अगर कभी वक्त मिले तो अपने इस अभागे टीचर के आँसू पोंछने आ जाना।
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी