कविता

नींद का चिथड़ा

होता है …हां होता है
कई बार यूं भी अक्सर
चाँद को कागज़ बना
ख्यालों के ज़हन में
उग आती है शब्दों की खरपतवार
लगती हैं ये रातें बेतुकी बातों सी
पलकें ख़्वाबों से झगड़ते हुए
उड़ा देती हैं नींद का चिथड़ा
सर के बोझ से दबा तकिया
देने लगता है उलाहने
पैरों की उंगलियां खेस से उलझती
बुनती अहसासों के ताने बाने
मन नामुराद कर बैठता
बगावत बिस्तर से
उठ बना अपने लिए
एक प्याली चाय सोचता
क्या छाले पड़ गए हैं
आज सूरज के पांव में

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]