धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धर्म की रक्षा, पालन व पोषण करना सभी सत्पुरुषों का कर्तव्य है

ओ३म्

धर्म क्या है इसका ज्ञान देश देशान्तर के सभी मनुष्यों को नहीं है। अधिकांश लोग मत विशेष को ही धर्म मानते हैं। धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है। यह शब्द किसी भी विदेशी भाषा में नहीं है। धर्म से कुछ मिलते जुलते विदेशी शब्द रिलीजन व मजहब आदि हैं परन्तु वह धर्म के पर्याय नहीं हैं। हमें लगता है कि अतीत काल में विदेशी लोग धर्म के सच्चे स्वरूप से परिचित नहीं थे इसलिये वह सत्य वेद धर्म को अपनाकर उसका प्रचार न कर सके। उन्होंने देश काल व परिस्थिति के अनुसार जो उचित व लाभप्रद समझा उसी का प्रचार किया व उसे ही अपनाया। ऐसा इस कारण हुआ कि महाभारत युद्ध के बाद आर्यावर्त देश के ब्राह्मण व पण्डितों में आलस्य व प्रमाद उत्पन्न हो गया था। वह असंगठित हो गये। उन्होंने धर्म को भी विस्मृत किया और उसके नाम पर समय समय पर अन्धविश्वासों को स्वीकार करते रहे। उन्होंने सत्य का अनुसंधान करने तथा वेदाध्ययन को भी तिलांजलि दे दी थी। वेदाध्ययन न होने से वैदिक धर्म विकृतियों को प्राप्त हुआ और देश देशान्तर में शुद्ध धर्म का प्रचार न होने से उन स्थानों पर भी अविद्या व अज्ञान से युक्त मान्यताओं का प्रचार हुआ। इसी कारण से विदेशों में वेदेतर अविद्यायुक्त मतों का प्रचार हुआ और भारत में भी वेद मत का विकृत रूप प्रचारित होने के साथ वह व्यवहार में लाया जाने लगा। उन दिनों कभी किसी को यह सन्देह नहीं हुआ कि जो वेद यज्ञ को हिंसा रहित कर्म ‘अध्वर’ प्रतिपादित करते थे, उनमें पशुओं की हिंसा करना क्योंकर उचित हो सकता था। यज्ञों में पशु हिंसा के कारण ही बुद्ध मत का आविर्भाव हुआ। इसी श्रृंखला में महावीर स्वामी जी के नाम पर जैन मत का प्रचलन भी हुआ। यह दोनों मत ईश्वर के अस्तित्व वा ईश्वर के वैदिक स्वरूप को इसलिये स्वीकार नहीं करते थे क्योंकि वेदों के नाम पर यज्ञों में पशुओं की हिंसा की जाती थी। बौद्ध व जैन मत जब यौवन पर थे और प्राचीन वेदमत वा सनातन धर्म विकृतियों के कारण उसका प्रभाव कम हो गया था, ऐसे समय में ईश्वर व वेद विश्वासी स्वामी शंकाराचार्य जी का आगमन हुआ। उन्होंने जैन मत के आचार्यों से शास्त्रार्थ किया। उन्हें वेदान्त के अपने सिद्धान्त संसार में सर्वव्यापक ईश्वर की ही एकमात्र विद्यमान सत्ता है, ईश्वर से इतर किसी पदार्थ की सत्ता नहीं है, इस मत व सिद्धान्त को तर्क व युक्तियों से सत्य सिद्ध कर स्वीकार कराया। वह शास्त्रार्थ में विजयी हुए थे।

स्वामी शंकराचार्य जी ने इस सिद्धान्त को प्रस्तुत कर इसका प्रचार किया और शास्त्रार्थ में जैन मत के आचार्यों के सिद्धान्त का कि ईश्वर नहीं है, खण्डित कर विजय प्राप्त की। स्वामी शंकाराचार्य जी मूर्तिपूजा के समर्थक नहीं थे। कालान्तर में उनके ही शिष्यों ने अपने गुरु के सिद्धान्तों के विपरीत मूर्तिपूजा आरम्भ कर दी। इसे धर्म की पतनावस्था ही कहा जा सकता है। महाभारत के बाद और ऋषि दयानन्द (1825-1883) के आगमन काल तक लोगों को वेदों का सच्चा स्वरूप विस्मृत था। वह वेद के नाम पर अन्धविश्वासों व अविद्या का सेवन कर रहे थे जिसके कारण आर्यजाति दुर्बल व निस्तेज होने सहित असंगठित होकर विधर्मियों से पतित व क्षय को प्राप्त हो रही थी। देश की स्वाधीनता भी समाप्त होकर यहां अनेक विधर्मी राजा राज्य कर रहे थे जो आर्य हिन्दू जनता पर अमानवीय जघन्य अन्याय, अपराध व अत्याचार करते थे। इसके कारणों पर विचार करते हैं तो ऋषि दयानन्द की कही बात ही सत्य सिद्ध होती है और वह यह थी कि महाभारत के बाद आर्य जाति व इसके पूर्वज विद्वान पण्डितों ने आलस्य व प्रमाद का मार्ग चुना और अपने कर्तव्य का त्याग किया। वह आलस्य व प्रमाद सहित अनेक स्वार्थों में भी फंस गये थे जिससे वेद निहित धर्म का यर्थार्थ मूल तत्व विस्मृत हो गया था और उसका स्थान अन्धविश्वासों ने ले लिया था। वह मनुस्मृति के इन वचनों को भूल गये थे कि जो मनुष्य जाति धर्म की रक्षा करती है, धर्म उनकी रक्षा करता है और जो धर्म की रक्षा नहीं करते वह रक्षा किया गया धर्म रक्षा करने वालों को ही मार डालता है। धर्म की रक्षा करने के कारण से ही आर्य जाति की यह स्थिति दुर्दशा हुई जिसके लिये हमारे पूर्वज ही उत्तरदायी सिद्ध होते हैं। आश्चर्य है कि ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों का सत्यस्वरूप प्रचारित करने पर भी हमारे सनातनी बन्धु उसे अपनाने को तत्पर नहीं हुए और उसी अवैदिक अन्धविश्वास व अविद्या के मार्ग पर चलकर आर्यजाति व आर्य सन्तानों के दुःखों की वृद्धि में तत्पर हैं जिससे वर्तमान एवं आगामी समय में आर्य जाति के अस्तित्व के लिये घोर संकट उत्पन्न हो गया है। यह खतरा आर्य संस्कृति की विरोधी विचारधाराओं व संस्कृतियों व अपसंस्कृतियों से है। ऐसा होने पर भी आर्य हिन्दू जाति के धार्मिक व सामाजिक नेता इन खतरों की उपेक्षा करते हुए दीख रहे हैं। देश की व्यवस्था भी इन खतरों को बढ़ा रही है। वर्तमान अवस्था यह है कि हमारी संस्कृति व इसके अनुयायियों पर अनेक प्रकार से आक्रमण हो रहे हैं जिसका सुधार व प्रतिकार वर्तमान व्यवस्था व नियमों के अनुसार नहीं हो सकता व हो रहा है।

वैदिक मत व इसके अनुयायी वर्तमान समय में जिस दुरावस्था को प्राप्त हैं उसका कारण महाभारत युद्ध के बाद बचे हुए पूर्वजों द्वारा धर्म पालन व धर्म प्रचार में सावधानी पूर्वक वेदों के सत्य सिद्धान्तों की रक्षा व उनका प्रचार न करना था। यदि वह ऋषि दयानन्द की तरह से सावधान रहते तो आज आर्य जाति की वह दुर्दशा न होती जो विगत सहस्रों वर्षों से होती देख रहे हैं। कभी इस देश में यज्ञों में हिंसा के कारण नास्तिक मत, ईश्वर के अस्तित्व को न मानने वाले मत, उत्पन्न होकर उत्कर्ष को प्राप्त होते हैं तो वहीं विदेशों में भी ईश्वर के स्वरूप को ठीक प्रकार न समझने वाले मत उत्पन्न होते हैं जो अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर अपने सिद्धान्त व मान्यतायें निश्चित करते हैं। विदेशी मतों का उद्देश्य विश्व में अपने उन अविद्यायुक्त मतों का प्रचार होता है और वह समर्पण भाव व येनकेन प्रकारेण यथा छल, बल, लोभ आदि का सहारा लेकर अपने कार्य को करते हैं जबकि हमारे देश के लोग दिन प्रतिदिन अनेक अवतारों व गुरुओं के दंश में फंस कर अनेक मतों, मठो व गुरुडमों की सृष्टि करते रहते हैं। हमारे देश के धर्म बन्धु अपने-अपने गुरुओं के अदूरदर्शी कृत्यों को समझ नहीं पाते और इस कारण अविद्या का प्रचार व सामाजिक संगठन कमजोर होता रहता है।

आर्यसमाज ने वैदिक धर्म के प्रचार का प्रशंसनीय कार्य किया। उसे वृद्धि को प्राप्त होना था परन्तु देश की आजादी के बाद वह भी निष्क्रिय हो गया। आज यह स्थिति है कि अनपढ़ तो क्या शिक्षित जन भी आर्यसमाज के उद्देश्यों व कार्य को भली प्रकार से जानते व समझते नहीं है। दूसरी ओर विदेशी मतों का प्रचार प्रसार अनेक प्रकार से बढ़ रहा है। उनकी जनसंख्या बढ़ने के साथ दुर्गम व दूरस्थ प्रदेशों के पिछड़े व जनजाति क्षेत्रों में धर्मान्तरण आदि के कार्य भी तीव्र गति से हो रहे हैं। अतीत में हमने नागालैण्ड व मिजोरम में मिशनरियों के धर्म परिवर्तन व उससे उत्पन्न समस्याओं को अनुभव किया था परन्तु तब भी हम सावधान व सचेत नहीं हुए। यह संकट निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है और वर्तमान में इसका प्रभाव विगत 2000 वर्षों में सर्वाधिक है। देश की जनता व हमारे धर्म बन्धु अपने अपने व्यवसाय के कार्यों व सुख सुविधाओं के भोग में ही व्यस्त रहते हैं। हमारे धर्म गुरु, आचार्य व नेता अपने धर्मबन्धुओं को एकजुट व संगठित करने के स्थान पर उन्हें अपना अपना शिष्य व अनुयायी बनाकर अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस कारण से आर्य हिन्दू जाति अति दुर्बल दीख रही है। भविष्य में इसके परिणाम खतरनाक होते दीखते हैं। नाना प्रकार की भविष्यवाणियां भी सुनने को मिलती रहती हैं। ऐसी अवस्था में भी इन खतरों पर विजय पाने के लिये कोई संगठित प्रयास कहीं से होता दिखाई नहीं दे रहा है। हमारे समाज के नेता भी आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों तथा अपने उत्सव आदि कर शक्ति प्रदर्शन करते रहते हैं और वर्तमान परिस्थितियों में सन्तुष्ट दीखते हैं। देश के दूरस्थ दुर्गम स्थानों पर रहने वाले अपने धर्मबन्धुओं के धर्म की रक्षा से वह सर्वथा चिन्तामुक्त प्रायः हैं। लगता है कि यह उनकी आत्म समर्पण की स्थिति है।

हम देश के अनेक स्थानों पर अपने धर्म बन्धुओं पर अकारण होने वाली हिंसा से आक्रोशित तो होते हैं परन्तु कोई उपाय न होने के कारण अपनी भावनाओं को दबाने के अतिरिक्त हमारे पास अन्य कोई उपाय नहीं होता। हमारे नेता तो प्रतिक्रियास्वरूप कभी दो शब्द बोलने की भी कृपा नहीं करते। अतः हम अपने बन्धुओं को चेतावनी ही दे सकते हैं। उन्हें ऋषि दयानन्द के जीवन व कार्यों से प्रेरणा लेनी चाहिये। उनके समय में आज जितनी प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं थी परन्तु उन्होनें आज की और भविष्य की परिस्थितियों का अनुमान किया था और इसीलिये अपने जीवन का एक-एक क्षण आर्य जाति की उन्नति में समर्पित किया था। उसके बाद स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं. गणपति शर्मा, पं. चमूपति, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय आदि विद्वानों ने देश व समाज को दिशा देने का प्रयास किया। उनके जाने के बाद आर्यसमाज शिथिल होने लगा। आज जो स्थिति है वह सबके सामने है। आज धर्म प्रचार व सामाजिक संगठन की स्थिति विपरीत अवश्य है परन्तु इस अवस्था में भी हमें निराश न होकर अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिये हमसे व जिससे जो भी हो सकता है, करना चाहिये। जो कोई बन्धु व नेता इस काम को करता है, उसे प्रोत्साहित करने सहित हमें उससे सहयोग करना है। हमें यह भी ध्यान रखना है कि हमारी जनसंख्या का अनुपात अन्य किसी मत से कम न हो। हमारे बच्चे हमारी धर्म व संस्कृति का त्याग न करें। हमें अपने सभी अन्धविश्वासों, अनुचित सामाजिक कुरीतियां व परम्पराओं को भी दूर कर उन्हें वेद के सत्य सिद्धान्तों पर आधारित करना है और सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी है। जब हम वेद और ऋषि दयानन्द द्वारा बताये गये वेदमार्ग का अनुसरण करेंगे तभी हमारी रक्षा व उन्नति का मार्ग निकल सकता है। इसके लिये हमें संगठित होना है और धर्म के लिये बलिदान होने की भावना को जन जन में भरना आवश्यक है।

हमें ऋषि दयानन्द जी के इस सिद्धान्त पर भी ध्यान देना है कि हमें सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार और यथायोग्य व्यवहार करना है। यथायोग्य व्यवहार पर आज सबसे अधिक ध्यान व बल दिये जाने की आवश्यकता है। हमने लेख में कुछ बातों को सांकेतिक रूप में कहा है। विद्वानों के लिये संकेत करना ही पर्याप्त होता है। सभी पाठक व धर्मबन्धु गुणी व समझदार हैं। सब अपने कर्तव्यों को समझे। हम पूरे विश्व को एक कुटुम्ब मानते हैं परन्तु विश्व को भी तो ऐसा मानना चाहिये। यदि वह हमें अपना दास बनाना चाहते हैं तो हमें सावधान रहकर अपने को सबल रखना होगा जिससे हम अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा करते हुए इसे क्षति न पहुंचने दे। हमें सृष्टि की आदि में महाराज मनु के शब्दों को स्मरण रखना चाहिये। उनके शब्द हैं धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।’ अर्थात् जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म स्वयं कर देता है। जो धर्म और धर्म पर चलने वालों की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा अपनी प्रकृति की शक्ति से करता है। अतः धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य