धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

कबीरदास के शब्दों में गुरु महिमा

गुरु पूर्णिमा 5 जुलाई पर विशेष…

संसार में कोई भी तत्व गुरु के समान नहीं

गुरु को केवल परलोक तक पहुचाने वाला ही नहीं वरन इहलौक याने वर्तमान को सुधार कर भविष्य बनाने वाला कहा गया है। भारतीय दर्शन में गुरु को केवल एक व्यक्ति या पद नहीं माना वरन एक तत्व माना गया है जो अगर मन में श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थापित हो जाए तो इस संसार में शिष्य को अपने समान बना देता है। यही कारण है कि सनातन परंपरा में गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया गया है। इसीलिए भारतीय वांग्मय में कहा गया है –
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

गुरु के महत्व को भारत के सभी धर्मों, परम्पराओं और व्यवस्थाओ ने स्वीकार किया है। चुंकि भारत में ज्ञान और शिक्षा आदिकाल से ऋषि परम्परा या संत परम्परा से समाज में आयी है। आदर्श जीवन जीने के जो सूत्र आमजन की बोली और साधुक्कड़ी या खीचड़ी बोली में संत कबीरदास जी ने बताएँ थे वे उस समय भी प्रासंगिक थे और आज तथा आने वाले काल में भी प्रासंगिक रहेंगे। कबीर रामानंद के शिष्य थे पर वे निर्गुणी संत कहे जाते है। निर्गुणी परम्परा में गुरु ही सब कुछ होते है। और गुरु के प्रति समर्पण ही जीवन का सार और लक्ष्य होता है। गुरु के सम्मान में संस्कृत के उपर दिए श्लोक के करीब कबीरदासजी का एक दोहा बड़ा ही प्रसिद्ध है।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

गुरु के प्रति एक अवधारणा जो जनमन में है वह यह है कि गुरु अपने शिष्य को संसार में बहुमुल्य बनाने का सामर्थ रखता है। चाहे शिष्य कैसा भी हो, लेकिन गुरु के सामर्थ पर एक दोहा कबीर दास जी कहते है-
गुरु पारस को अन्तरो,जानत हैं सब सन्त ।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ।।
अर्थात- गुरु में और पारस पत्थर में अन्तर है, पारस पत्थर तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु अपने शिष्य को अपने समान बना देता है। गुरु में वो शक्ति है कि जो उसका सानिध्य पाता है वह पारस पत्थर के स्पर्श से बनने वाले सोने की तरह मुल्यवान नहीं बल्कि पारस पत्थर की तरह बेमोल हो सकता है।

गुरु किस तरह से शिष्य के दोषों को दूर करता है और किस तरह से उसे संसार में मुल्यवान बनाता है, इस पर कबीर कहते है-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,गढ़ि –गढ़ि काढ़ै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट ।।
अर्थात- गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़े के समान है। जिस तरह घड़े को सुंदर और दोष रहित बनाने के लिए कुम्हार कच्चे घड़े को भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मारता है उसी तरह गुरु भी अपने अंतर में प्रेम और शिष्य के सामने बाहरी कठोरता रखकर उसके दोषों को दूर करते है। शिष्य की बुराई को निकलते हैं। ताकि वो आदर्श समाज का हिस्सा बन सके।

गुरु और शिष्य एक दुसरे से कैसे जुड़े रहते है, एक आदर्श शिष्य कैसा हो इस बात को कबीर कुछ इस तरह से कहते है-
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर ।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शरीर।।
अर्थात- यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्य गुरु को एक क्षण के लिए भी भूले नहीं। शिष्य गुरु से कितनी भी दूर क्यों न हो, वह उनके बताए हुए मार्ग पर ही चलता है। सच्चा शिष्य वही है, जो गुरु के बताए हुए ज्ञान को कभी भूले नहीं। यदि गुरु में कोई कमी रहती है तो भी वह केवल उनके गुणों को स्मरण करता रहे।

गुरु की महिमा पर बहुत कुछ लिखा गया, पर कबीर दास जी ने जब ये दोहा लिख दिया तो सब कुछ इसमें समाहित हो गया। गुरु के सामने सब कुछ छोटा है।
सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ।।
अर्थात- सारी पृथ्वी को कागज बना ले, सारे जंगलों को कलम बना ले, और सातों समुद्रों के पानी को स्याही बनाकर लिखने लगे तो भी गुरु के गुणों पर लिख पाना संभव नहीं है। यहॉ कबीरदास जी ने जो तीन उपमाएँ दी है वे संसार के विराट तत्व है। इनसे बड़ा संसार में कोई तत्व नहीं पर गुरु के गुण के सामने ये भी छोटे पड़ेगे। इतनी गुरु की महिमा है।

और भी कईं दोहे और साखियों के माध्यम से कबीरदास जी ने गुरु महिमा का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। गुरु की महिमा को स्वीकार करने वालों के लिए शब्दों की नहीं, भाव की प्रधानता होती है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर होता है,जब हम गुरु के प्रति सम्मान,सत्कार और अपनी तमाम भावनाएँ उन्हें समर्पित करते हैं।

— संदीप सृजन

संदीप सृजन

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