धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मनुष्य जीवन का कल्याण वेदज्ञान के धारण व आचरण से ही संभव

ओ३म्

परमात्मा ने हमें मनुष्य जीवन दिया है। हमारा सौभाग्य है कि हम भारत में जन्में हैं जो सृष्टि के आरम्भ से वेद, ऋषियों देवों की भूमि रही है। मानव सभ्यता का आरम्भ इस देवभूमि आर्यावर्त वा भारत से ही हुआ था। मनुष्य जीवन की उन्नति कल्याण के लिए परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह वेदज्ञान मनुष्य की समग्र वा सर्वांगीण उन्नति का आधार है। बिना वेदज्ञान के मनुष्य अपनी आत्मा जीवन की उन्नति नहीं कर सकता। वेदों का कुछ कुछ ज्ञान परवर्ती व वर्तमान साहित्य में यत्र तत्र भी सुलभ होता है परन्तु शुद्ध वेदज्ञान वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों यथा उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि से ही प्राप्त होता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये हमें संस्कृत या हिन्दी भाषा का ज्ञान होना आवश्यक है। इन दोनों व इनमें से किसी एक भाषा का ज्ञान होने पर हम इन ग्रन्थों का स्वाध्याय कर तथा वैदिक विद्वानों की संगति कर अपनी आत्मा को वेदज्ञान से युक्त कर सकते हैं और इसके अनुरूप आचरण से हम अपने जीवन के उद्देश्य दुःख निवृत्ति, सुखों की प्राप्ति, अभ्युदय, निःश्रेयस सहित ईश्वर साक्षात्कार आदि भी कर सकते हैं। ऐसा ही प्राचीन काल में सभी विज्ञजन किया करते थे। इसी कारण भारत विश्वगुरु कहलाता था। विश्व के लोग भारत में वेदज्ञान के अध्ययन व प्राप्ति के लिये आते थे और यहां रहकर ऋषियों से ज्ञान की प्राप्ति करके अपने देशों में जाकर वेदों का ही अध्यापन व प्रचार करते थे। अध्ययन से हम यह भी पाते हैं कि महाभारत के समय तक पूरे विश्व में एक ही वैदिक धर्म प्रचलित था। इसका कारण था वेदों का अज्ञान से सर्वथा रहित होना तथा पूर्णरुपेण ज्ञान व विज्ञान पर आधारित होना जिससे मनुष्य को सुख लाभ होने सहित दुःखों की सर्वथा निवृत्ति होती थी, अब भी होती है तथा परजन्म में सुखों व ज्ञान से युक्त परिवेश में परमात्मा द्वारा मनुष्य जीवन की उपलब्धि होती है।

वेदों का ज्ञान परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। सृष्टि के आरम्भ में और उसके बाद प्रत्येक काल में मनुष्यों को ज्ञान की आवश्यकता होती है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि की थी। ज्ञान प्राप्ति के लिये आदि काल में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों के पास अपने माता-पिता आचार्य आदि नहीं थे। ज्ञानवान सत्ता एक ही थी जो ईश्वर के रूप में संसार में व्यापक होने सहित सबकी आत्माओं में सर्वान्तर्यामी रूप में विद्यमान थी। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी है। आत्मा एवं परमात्मा दोनों चेतन सत्तायें होने से ज्ञानवान व ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता से युक्त होते हैं। जड़ प्रकृति ज्ञान से सर्वथा शून्य होती है। जड़ पदार्थों का मुख्य गुण ज्ञानशून्य वा जड़ होना ही होता है। अतः सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में सभी स्त्री, पुरुषों को ज्ञान परमात्मा से ही प्राप्त हुआ था। यह ज्ञान चार वेदों के रूप में था। इसी कारण हम परमात्मा को आदि माता, पिता तथा आचार्य भी मानते हैं और वह है भी। परमात्मा सर्वज्ञ एवं अविद्या से सर्वथा रहित है। ऐसा ही वेदज्ञान है जिसमें सब सत्य विद्यायें विद्यमान हैं और अविद्या व अज्ञान का लेश भी नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि ऋषि दयानन्द सहित सभी ऋषि एवं विद्वान करते आये हैं और इसके लिए प्रमाण भी देते हैं। सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। वेदोत्पत्ति का वर्णन भी सत्यार्थप्रकाश में हुआ है। इस अध्ययन से निभ्र्रान्त रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद ज्ञान परमात्मा से प्राप्त हुआ था। वेदों की भाषा संस्कृत भी वेदों से ही प्राप्त हुई है जो संसार की सभी भाषाओं की जननी व मूल भाषा है। वेदों से ही संसार के सब पदार्थ प्रसिद्ध अर्थात् नाम व गुणों के द्वारा प्रकाश में आये हैं। इस कारण वेद मनुष्यमात्र की ईश्वर प्रदत्त सम्पत्ति है। सब मनुष्यों का वेदों पर समान अधिकार है। कोई किसी भी देश में किसी भी वर्ण, जाति व परिस्थिति में उत्पन्न हुआ हो, सब वेद पढ़ सकते हैं। परमात्मा ने यर्जुवेद के 26/2 मन्त्र में संसार के सभी मनुष्यों को वेद पढ़ कर ज्ञानी बनने का अवसर व अधिकार दिया है। सब मनुष्यों का पावन पुनीत कर्तव्य भी है कि वह वेदों को पढ़े और उसकी उदात्त शिक्षाओं को ग्रहण कर उसके अनुसार न केवल अपना जीवन बनायें अपितु अज्ञानी लोगों में प्रचार कर वेदों का प्रकाश करें जिससे हमारा देश व समाज अज्ञान तिमिर से दूर होकर सत्य ज्ञान पर आधारित एक अग्रणीय उन्नत व विकसित समाज बन सके। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि जो मनुष्य जीवन में वेदध्ययन नहीं करता व उसका आचरण नहीं करता वह ईश्वर की आज्ञा पालन न करने का दोषी होता है। इसी को ध्यान में रखकर ऋषि दयानन्द ने नियम दिया है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना तथा सुनना-सुनाना सब आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ गुणों वाले मनुष्यों का परम धर्म है। जो मनुष्य परमधर्म की अवज्ञा करेगा वह निश्चय ही दुःखों को प्राप्त होगा।

वेदों में हमें ईश्वर, जीवात्मा तथा कारण कार्य सृष्टि का सत्यस्वरूप प्राप्त होता है। वेदों से हम ईश्वर की महानता से परिचित होते हैं और हमें जीवात्माओं की अल्पज्ञता एवं इसके कारण उसमें लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि दुर्गुणों के होने का ज्ञान भी होता है। जीवों की इन दुर्बलताओं का शमन वेदाध्ययन एवं वेद की शिक्षाओं को आत्मसात कर उसे आचरण में लाने से ही होता है। मनुष्य जीवन की उन्नति में ईश्वर के ज्ञान एवं ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना सहित वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय का महत्व निर्विवाद है। वेद के ज्ञान व उसके आचरण से दूर मनुष्य को पतन के गर्त में गिरता देखा जाता है। संसार में जो लोग व देश अकारण हिंसा, शोषण व अन्याय आदि करते देखे जाते हैं, उसका कारण उनका वेदज्ञान से दूर होना ही होता है। यही कारण था कि प्राचीन काल में राजा व उनके मन्त्री एवं परामर्शदाता वेदों के विद्वान होते थे जो स्वयं वेदमार्ग पर चलते हुए राजाओं को वेदमार्ग पर चलने की प्रेरणा करने करते थे। इसके साथ ही राजाओं के सभी निर्णय ईश्वर को सर्वव्यापक एवं साक्षी मानकर मानवता के हितों अनुरूप लिये जाते थे। राम, कृष्ण एवं आर्य राजाओं का जीवन ऐसा ही होता था। ऐसी स्थिति होने पर ही सभी परस्पर देश सुख व शान्ति से रहते थे और यहां के मनुष्यों का जीवन भी सुख व आनन्द से युक्त होता था। जैसे जैसे संसार वेदों से दूर जाता गया, संसार में अज्ञान की वृद्धि होकर परस्पर संघर्ष की स्थिति बनती गई और लोभवश शक्तिशाली राजा दूसरे धार्मिक व निर्बल राज्यों पर अधिकार करते रहे। वेदों का राजधर्म धार्मिक राजाओं पर सीमाओं के विस्तार की दृष्टि से आक्रमण की आज्ञा नहीं देता अपितु सभी देशों से मैत्री की संधि कर सबके हित के लिए सहयोग करने की शिक्षा व प्रेरणा करता है। हमारे देश के चक्रवर्ती आर्य राजा पड़ोसी व दूसरे देशों पर आक्रमण कर अपने देश में मिलाने के स्थान पर वहां वैदिक व्यवस्था कायम कर उनसे नाममात्र का कर वसूल करते थे और उनकी रक्षा का आश्वासन देते थे। यही कारण है कि वैदिक राज्य व व्यवस्था रामराज्य का पर्याय कहलाती है। इस संसार का पूर्ण हित भी तभी होगा जब लोग वेदों को जानेंगे और वेद की शिक्षाओं के आधार पर देश की सभी व्यवस्थाओं का संचालन होगा।

वेदज्ञान को प्राप्त कर हम सत्य ज्ञान को प्राप्त होते हैं। वेदज्ञान से सभी मनुष्यों को अपने अपने कर्तव्यों का बोध होता है। कर्तव्यों का बोध और उनका पालन करने से ही हम धर्मयुक्त आचरण करते हुए अपने दूसरों के जीवनों को अभ्युदय तथा निःश्रेयस के मार्ग पर अग्रसर करने की प्रेरणा कर सकते हैं। धर्म की एक परिभाषा है कि धर्म उन कर्मों कर्तव्यों का नाम है जिससे मनुष्य का अभ्युदय होता हो मृत्यु होने पर निःश्रेयस अर्थात् जन्म मरण से अवकाश होता है। इसे ही मुक्ति मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष की अवस्था जन्म व मरण से रहित पूर्ण आनन्द की अवस्था होती है जो जीव को ईश्वर के सान्निध्य में रहकर प्राप्त होता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये सभी मनुष्यों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन सहित वेदाध्ययन करना भी आवश्यक होना चाहिये। वैदिक जीवन ही सुखी एवं धर्मपूर्वक समृद्धि का आधार होता है। वैदिक जीवन में ज्ञान प्राप्ति सहित जीवन को यम व नियमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान) पर आधारित बनाने पर बल दिया जाता है। यम व नियमों में बंधा जीवन ही सुखी, निरोग, स्वस्थ, उन्नत, दीर्घजीवी एवं देश एवं समाज के लिए हितकारी होता है। अतः सबको वेदाध्ययन सहित वेदों के प्रवेशद्वार सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हम अपने जीवन को दिव्य एवं सार्थक बना सकेंगे और हमारा इहलोक व परलोक सुधरेगा। हम सबको धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होगी। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य