ग़ज़ल
ये किस सांचे में ढाला जा रहा है ।
मेरे हक़ का निवाला जा रहा है ।।
मुनाफ़ा जिनसे हासिल था उन्हीं का ।
निकाला अब दिवाला जा रहा है ।
अज़ब है ये तुम्हारी मीडिया भी ।
हमेशा सच को टाला जा रहा है ।।
वतन को डस लिया वो सर्प देखो ।
जिसे ग़फ़लत में पाला जा रहा है ।।
गुनाहों को छुपाने के लिए क्यूँ ।
यूँ पर्दा ख़ूब डाला जा रहा है ।।
यहाँ नीलामियों का दौर साहब ।
वतन कैसे सँभाला जा रहा है ।।
तरक़्की कर लिया है मुल्क ने अब ।
शिगूफा यह उछाला जा रहा है ।।
किसी जमहूरियत की ही जुबाँ पर।
लगाया रोज़ ताला जा रहा है ।।
फ़रेबी शम्स तू कुछ तो बता दे ।
ज़मीं से क्यूँ उजाला जा रहा है ।।
— डॉ नवीन मणि त्रिपाठी