लघुकथा

प्रतियोगिता

माँ,मैं अभी शादी नहीं करना चाहतीं।क्यों,बेटी अब तो तुम्हारी शिक्षा भी पूरी हो चुकी हैं?तुम्हारी उम्र भी तो निकल रही हैं।देखों, गाँव में तुम से छोटी लड़कियों के हाथ पीले हो गए हैं।नहीं माँ अभी मेरी उम्र ही क्या है?क्यों कितने साल की हो गई हो तुम?माँ, अभी तो अठारह भी पूरा नहीं हुआ है।माँ उसके चेहरे को गौर से देख रही थी।
अंजली-अंजली,दरवाजे पर आवाज आ रही थी।आई चाची,तुम तो हमेशा तूफान की तरह आती हो।मैं इतनी देर से दरवाजा पीट रही हूँ, मेरी सुनता ही कौन हैं इस घर में, चाची उलहाना दे रही थी।तुम,माँ, बेटी कहाँ खोई रहती हो?आज फिर शादी की बात पर एक-दूसरे से उलझ रही होंगी।चाची आप ही समझाओ माँ को।मेरी बात तो ये सुनती ही नहीं है।पूरे गाँव में शादियों की होड़ सी लगी हैं।सभी अपनी लाड़लियों को विदा करने में लगे हैं।तो बेटी इसमें बुराई क्या है?आज नहीं तो कल शादी तो करनी है।
बेटियाँ तो जितनी जल्दी अपने घर चली जाए,उतना अच्छा।चाची तुम भी माँ का ही पक्ष ले रही हो।दोनों एक साथ हँस पड़ी।माँ तुम आजकल मेरी बहुत चिन्ता करने लगी हो।पर माँ उसे चुपचाप बाहर जाती देख रही थी।
बस एक अच्छा लड़का मिल जाए,तो मैं भी गंगा नहा लूँ।पूरे गाँव में अच्छे लड़के ढूंढने की प्रतियोगिता लगी हुई थी।सभी परिवार इस प्रतियोगिता में बाजी मार लेना चाहते थे।कोई दहेज के बल पर,कोई बेटी की सुंदरता के बल पर।पर अंजली की माँ, अपनी साधारण सी दिखने वाली बेटी को किस आधार पर इस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान दिलवाएगी।यही सोच उसे खाए जा रही थी।
अंजली भी इस सबसे अनजान नहीं थीं।पर उसने जीवन की इस प्रतियोगिता को जीतने के लिए, शिक्षा को आधार बना लिया था।वह शिक्षा के बल पर जीवन की हर प्रतियोगिता जीतती चली गई।आज वह जज बन गई हैं।सारे गाँव को उस पर नाज है।वह जीवन के हर पल को प्रतियोगिता की तरह जीती हैं।

राकेश कुमार तगाला

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